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________________ [ १६ ] छिपत है, वपुकी युति है अपरम्पारा ॥ देख्या०२॥ जिनके बचन सुनें जिन भबिजन, तजि गृह मुनिवरको ब्रत धारा । जाको जस इन्द्रादिक गाव, पावै सुख नासै दुख भारा । देख्या० ३। जाके केवल ज्ञान विराजत, लोकालोक प्रकाशन हारा । चरन गहेकी लाज निबाहो, प्रभुजी यानत भगत तुम्हारा । देख्या ४ ॥ (३०) आतमरूप अनुपम है, घटमाहिं विराजै॥टेक जाके सुमरन जाप सो, भव भव दुख भाजै हो । आतम० ॥१॥ केवल दरशन ज्ञानमैं, थिरतापद छाजै हो । उपमाको तिहुं लोकमें, कोउ वस्तु न राजै हो॥ आतम० २ ॥ सहै परीषह भार जो, जु महाबत साजै हो । ज्ञान विना शिव ना लहै, बहुकर्म उपाजै हो ॥ आतम० ३॥ तिहुँ लोक तिहुँ कालमें नहिँ और इलाजै हो । द्यानत ता. कों जानिये, निज स्वारथ का हो ॥ आतम ४ ॥ नहिं ऐसो जनम बारम्बार ॥ टेक ॥ कठिनकठिन लयो मनुष भव, विषय भजि मतिहार ॥
SR No.010454
Book TitlePrachin Jainpad Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvani Pracharak Karyalaya Calcutta
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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