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________________ ( ३ ) ४ तिताला । और ठौर क्यों हेरत प्यारा, तेरे हि घटमें जाननहारा || और० ॥ टेक ॥ चलन हलन थल वास एकता, जात्यान्तरतैं न्यारा न्यारा ॥ और० ॥ १॥ मोहउदय रागी द्वेषी, क्रोधादिकका सरजनहारा । भ्रमत फिरत चारौं गति भीतर, जनम मरन भोगत दुख भारा || और० ॥ २ ॥ गुरु उपदेश लखै पद आपा, तबहिं विभाव करें परिहारा । है एकाकी बुधजन निश्चल, पावै शिवपुर सुखद अपारा ॥ औ० ॥ ५ तिताला । काल अचानक ही ले जायगा, गाफिल होकर रहना क्या रे || काल० ॥ टेक ॥ छिन हूं तोकू नाहिं बचावैं तौ सुभटनका रखना क्यारे । काल० | ॥१॥ रंच सवाद करिनके कार्जे, नरकमैं दुख भरना क्या रे । कुलजन पथिकनिके हितकाजैं, जगत जालमें परना क्या रे । काल० ॥२॥ इन्द्रादिक कोउ नाहिं बचैया, और लोकका शरना क्या रे । निश्चय हुआ जगत में मरना, कष्ट परै तब डरना क्या रे || काल० || ३ || अपना ध्यान करत खिर जावैं, तौ करमनिका हरना क्या रे । अब
SR No.010454
Book TitlePrachin Jainpad Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvani Pracharak Karyalaya Calcutta
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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