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________________ ( ६७ ) ८४ (देव से पुकार ) नाथ सुधि लीजै जी म्हारी, मोहि भव भव दुखिया जान के सुधि लीजो जी म्हारी || टेक || तीन लोक के स्वामी नामी तुम त्रिभुवन दुखहारी । गनधरादि तुम शरन लई, लखि लीनी शरन तुम्हारी || नाथ सुधि लीजो० ॥ १ ॥ जो विधि श्ररी करी हमरी गति सो तुम जानत सारी, याद किये दुख होत हिये विच लागत कोट कटारी ॥ नाथ सु० || २ || लब्धि अपर्यापत निगोद में, एक हि स्वास मंझारी । जनम मरन नव दुगुन विथा की कथा न जात उचारी ॥ नाथ सुधि० ॥ ३ ॥ भूजल ज्वलन पवन प्रत्येक तरु, विकल त्रय दुख भारी । पञ्चेंद्री पशू नारक नर सुर विपति भरी भयकारी ॥ नाथ सुधि० ॥४॥ मोह महारिपु नें न सुखमई हौंन दई सुधि थारी । ते दुठ मंद होत भागन ते पाये तुम जगतारी ॥ नाथ सुधि० ॥ ५ ॥ यदपि विराग तदपि तुम शिव मग सहज प्रगट करतारी, ज्यों रवि किरन सहज मग दर्शक, यह निमित अनिवारी ॥ नाथ सुधि० || ६ || नाग छाग गज वाघ भील दुठ तारे अधम उधारी, शीश निवाय पुकारत अवके दौल अधम की बारी || नाथ सुधि० ॥ ७ ॥
SR No.010454
Book TitlePrachin Jainpad Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvani Pracharak Karyalaya Calcutta
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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