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________________ ( ३८ ) धुनि गरज सुनत सुख उपजै, मोर सुमन विहसायो | साधक भाव अँकुर उठे बहु, जित तित हरष सवायो | अब मेरें ॥ ३ ॥ भूल धूल कहिं भूल न सूझत, समरस जल भर लायो । भूधर को निकसै अब बाहिर, निज निरचूर पायो || अब मेरें ॥४॥ ७३ राग सोरठ । - भगवन्तभजन क्यों भूला रे ॥ टेक ॥ यह संसार रैनका सुपना, तन धन वारि ववूला रे ॥ भगवन्त० ||१|| इस जोवनका कौन भरोसा, पावक में तृणपूला रे ! | काल कुदार लियें सिर ठाड़ा, क्या समझ मन फूला रे ! ॥ भगवन्त ||२|| स्वा-रथ सार्धं पांच पांव तू, परमारथकों लूला रे 11 कहु कैसे सुख है प्राणी, काम करै दुखमूला रे ॥ भगवन्त || ३ || मोह पिशाच छल्यो मति मारै, निज कर कन्ध बसूला रे । भज श्रीराजमतीवर भूधर, दो दुरमति सिर धूला रे ||४|| ८० राग - विहागरो । नेमि बिना न रहे मेरो जियरा ॥ टेक ॥ हेर री हेली तपत उर कैसो, लावत क्यों निज हाथ न नियरा ॥ नेमि विना० || १|| करि करि दूर कपूर क-
SR No.010454
Book TitlePrachin Jainpad Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvani Pracharak Karyalaya Calcutta
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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