SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 407
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ८३ ) मिथ्या वांनी हे अज्ञानी ताको कौन करे वर्णन | भज अरहन्तं भज र० ॥ ४ ॥ बहु सुरतें यावर उदर समावइ पायइ छत्रीकुल नीके सुर इन्दर व नगर रचाएँ सब गुण गावैं प्रभु जी के, होय विरागी माया त्यामी जागी अगनी ज्ञानमयी, सत्र कर्म्म नसावइ केवल पावई वेद बतावई ईश थई, पट भूषण अष्टादश दूपण नाही जिसमें सो शरणं ॥ भज ० ॥५॥ पांच क्षेत्रको देव जगत में सेव करीजे परख करी, अनन्तकाल की जगतजालमें उलझ रहा नही गरज सरी, लख चौरासी की गल फांसी कीया पासी जहां जासी, देखि विमासी तजके हांसी निज घर आसी सुख पासी, बारंवारा करो विचारा ईश्वर शुद्ध हिये धरणं ॥ भज अरहन्तं ॥ ६ ॥ 1 ज्ञान कमाया मोल विकाया रीस रिसाया भेष धरे, काम मरोरे माया जोरे व्याज बहौंरे तोप हरे । गुरु बिन अज्ञानी चेला मानी मानी की दुरगति न्यारी, डोरी गावइ जग परचावई माल उड़ावइ लै भारी, धर्म न रही उलटा लरहि डरें नही परवपु हरणं || भज अर० ||७|| पांच भेवको देव जगत में सेव करीजे परख करी, अनन्तकाल का जगतजाल में उलझर रहा नहीं गरज सरी, लख चौरासी की गल फांसी किया पासी जहां जासी,
SR No.010454
Book TitlePrachin Jainpad Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvani Pracharak Karyalaya Calcutta
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy