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________________ ( ६७ ) होकर, फिर भटकते है दरदर। हा। मत वेश्या से० ॥२॥ लाखों करोड़ों की जानें गई हैं वीरज खोकर, निर्वल होकर हों बीमार मरें सड़ सड़ कर । हा । मत० ॥३॥ हजारों गरमी से सड़ रहे है नीम की टहनी पड़ेगी लेनी, होय मुसीवत भारी सहनी, हा मत वेश्या से प्रीति०॥४॥ लाखों प्रमेह रोग भुगत रहे हैं, तेल खटाई मिरच मिठाई, खा तो कमबख्ती आई । हा । मत वेश्या से ॥ ५॥ होवे जो रंडी के पुत्री तुम्हारी, करती कमाई दुनिया से भाई गिनो तो कितने भये जमाई। हा । मत वेश्या०॥६॥ कहता जैनी अब कुछ चेतो, माल वचारो इज्जत कमायो, भूल कभी वेश्या के न जायो । हा । मत वेश्या से प्रीति लगाओ जी ॥७॥ (एक बूढे के दिल में शादी की उमग ) गद्य ___ भाई बूढो ! मेरी बडी उमर के दोस्तो! कुछ तुम्हें अपनी भी खबर है , न तो तुम्हारे घर है न दर है। भाई सुमको कुछ ख्याल हो या न हो लेकिन मैं अपनी क्या कहूं, जब से घर की औरत का साथ छूटा तब से मेरा तो बिलकुल ही भाग फुटा है। उसके मरने के बाद न कुछ खाना है न पीना है। न मरना है न जीना है। क्या
SR No.010454
Book TitlePrachin Jainpad Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvani Pracharak Karyalaya Calcutta
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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