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________________ ( ३२ ) 1 कला बढाती है दिन दिन काम रजनी बिलाई है अमृत आनंद शासन ने शोक तृष्णा वुझाई है । तुम्हारा० ॥ १ ॥ जो इष्टानिष्ट में मेरी कल्पना थी नशाई हैं मैंने निज साध्य को साधा उपाधी सव मिटाई है | तुम्हारा० || २ || धन्य दिन आज का न्यामत छवी जिन देख पाई है, सुधर गई सब बिगड़ी अचल सिद्धि हाथ आई है | तुम्हारा० ॥३॥ ३४ ( तर्ज - इलाजे दर्द दिल से मसीहा ० ) पूरब है तेरी महिमा कही हम से नहीं जाती, तुम्ही सच्चे हित सबके तुम्ही हरएक के साथी ॥ टेक ॥ पाप जब जग में फैला था गरम बाजार हिंसा का, विचारे दीन जीवों को कभी नहीं चैन थी आती । अपूरव० ॥ १ ॥ हजारों यज्ञ में लाखों हवन में जीव मरते थे, कि जिसको देख कर भर आती थी हर एक की छाती | अपूरव० ॥२॥ जगत कल्यान करने को लिया औतार जब तुमने, सुरासुर चर अचर सबको तेरी वानी थी मन भाती । अपूरव० ॥ ३ || दया का आपने उपदेश दुनियां में दिया आके वरने जालिमों के हाथ से दुनियां थी दुख पाती । O पूरब ० || ४ || जो था पाखंड दुनियां में हुआ सब दूर इक दम में, धुजा हरस नजर आने लगी जिंनमत की t
SR No.010454
Book TitlePrachin Jainpad Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvani Pracharak Karyalaya Calcutta
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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