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________________ 1 [८० ] १६४-राग समंदर खम्माच की धुन । तेरी नवका लगी है सुघाट किनारे, लागी मतना डबोवो जी ॥ टेक ॥ हर कर्म भर्म घर परम धरम मिथ्यातकरम से हाथ उठा, चिरकाल जगत में दुःख भरे जिस भांति बने ले पिंड छुटा, भा भाव अनित्य अशर्ण लदा संसार हरट सा चलता है एकत्व दशा समझो अपनी वह तत्व क्यों नहिं टलता है तुम अशुचि अंग के संग शुद्धता अपनी ना खोवोजी ॥ १॥ दे श्राश्रव वाट मैं संबर डाट प्रकाश महा वलर्म त्रिपा, ये पुरुषा कार है कारागार तू कैद पड़ा है वाद सफा, है दुर्लभवोध ले सोध जरा जिन धर्म की प्रापति दुर्लभ है, ले तत्व अतत्व विचार हृदै इस वक्त तुझै सव सुर्लभ है, तपाई नर पर जाय अगामी मत कांटे वोवो जी ॥२॥ ये मोग भुजंग भयानक है क्रोधादि अगन ह्यां जलती हैं, तुम जलते हो न सिंभलते हो ऐ यार बड़ी यह गलती है, जो इनको त्याग वसैं वन मैं वे मुक्ति वरांगन वरते हैं निर्वाण अचल सुख पाते हैं, वे जन्म मरण, दुखहरते हैं, तू धरले सम्यक दृष्टि नैन सुख जिन हित जोबोजी ॥३॥ इति शुभम्
SR No.010454
Book TitlePrachin Jainpad Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvani Pracharak Karyalaya Calcutta
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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