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________________ [ ७४ ] १५१ - रागधानी । राखो रुचि वीरा मत रूसो धरम से, राखो रुचि बीग, हे रूसो ना धरम सै जिनमत के मरम सैं, राखा ॥ टेक ॥ धर्म प्रभाव तिरोगे भवसागर, पिण्ड छूटेगा तेरा श्राठोंही करमसँ । साचेदेव धरम ही को सेवा, याहीसें तिरोगे न तिरोगे जी भरमसँ : सान नयनसुख लयानी, भाषै हैं सुगुरु तेरे जिया वेशरम सें ॥३॥ १५२ - रागनी भैरवी या खम्माच । जबसें वरन की शरण मैं लई प्रभु, जागी सुमति मोरी भागी कुमति, प्रभु० ॥ टेक ॥ छूटी अदर्शन अविद्या अनादि, जब से समाधी धरन मैं लई । १ अनुभव भयो नेरे मन में तुमारो, जबसे तेरी जप करन में लई । २ साताभई भगाई सब असाता, जो पूर्व जम्मन मरन मैं लई | ३ भजी सर्व चिंता भया सुख अनंता, हगानंद संपति भरनमें लई । ४ १५३ - चाल । १ ॥ २ ॥ मैं तो शान्ति पाई तृष्णा घटाने से ॥ टेक ॥ रागी में पूजे विरागा मैं पूजे, भ्रष्ट भयो बहकाने से ॥ धार कुभेप अनेक भरे दुख, दूर भगो जिन बाने से ॥ मिटी कुदृष्टि सुदृष्टि भई अब, श्री जिन के समझाने ले ॥ वंध मोक्ष का मारग सूझा, स्वपर स्वरूप पिछाने से ॥ ४ ॥ जाने पुण्य पाप दोउ बन्धन, शुद्ध भावना भान से ॥ ५ ॥ नैनानन्द मिटे सब सुख दुख, सम्यक दर्शन पाने से ॥ ६ ॥ ३ ॥
SR No.010454
Book TitlePrachin Jainpad Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvani Pracharak Karyalaya Calcutta
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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