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________________ ( २७ ) रथनाथ भोग तजि दीनें, तिनतें मन भय आन । तू तिनतें कहुं डरपत नाहीं, दीसत अति बलवान ॥ आवै न० ॥ १ ॥ इन्द्रियतृप्ति काज तू भोगे, विषय महा अघखान । सो जैसे घृतधारा डारै पावकज्वाल बुझान || आवै न० || २ || जे सुख तौ तीछन दुखदाई, ज्यों मधुलिप्त-कृपान । तातैं भागचंद इनको तजि, आत्मस्वरूप पिछान || आवै न० ॥३॥ ५६ राग - मल्हार । मान न कीजिये हो परवीन ॥ टेक ॥ जाय पलाय चंचला कमला, तिष्ठे दो दिन तीन । धनजोवन छन भंगुर सब ही, होत सुछिन छिन छीन ॥ मान न० ||१|| भरत नरेन्द्र खण्ड-षट नायक, तेहु भये मद होन । तेरी बात कहा है भाई, तू तो सहज ही दीन ॥ मोन न० ||२|| भागचन्द मार्दव रसनागर, माहिं होहु लवलीन । तातैं जगत जालमें फिर कहुँ, जनम न होय - नवीन ॥ मान न० ॥३॥ ५७ राग मल्हार । अरे हो अज्ञानी तूने कठिन मनुषभव पायो टेक || लोचनरहित मनुषके करमें, ज्यों बटेर खग आयो | अरे हो० ॥ १॥ सो तू खोवत विषयन
SR No.010454
Book TitlePrachin Jainpad Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvani Pracharak Karyalaya Calcutta
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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