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________________ [५१ . १०६ - राग जंगला। कीना जी में कीना जग में, जैन वनज जसकारी जी ॥ टेक॥ धर्म द्वीप दुर्गम्य दिशावर, सतगुरु संग व्यापारी जी। कंवल ज्ञान खान से लेकर, माल भरे हैं भारी जी ॥१॥ कर्म काष्ट के शकटा कीन, द्विविध धरम विष भारी जी। भक्ति आर से हांक चलाये, आगम सड़क मंझारी जी ॥ २॥ सप्त तत्व अरु नव पदार्थ भरि, तीन गुप्त मणि भारी जी। भवि जहुरी विन कौन खरीदै, खेप अमोलक म्हारी जी ॥३॥ मिथ्या देश उलंघ जतन से, भव समुद्र से पारी जी। नयनानन्द'खेप गुरु जन संग, मुक्ति दीप में बारी जी ॥४॥ ११०-राग जंगले की ठुमरी । हथना पुर तीरथ परसन , मेरा मन उमगा जैसे सजल घटोटेक पृजत शांत प्रशांत भई मेरी, विषय अगन आताप लटो ॥ १॥ सुख अंकूर बढ़े उर अन्तर, अब सब दुख दुर्भिक्ष हटा ॥२॥ धन यह भूमि जहां तीर्थकर, धरि आतापन जोग डा॥३॥ नयनानन्द अनन्द भये अक, परसि तपोबन गङ्ग तदा ॥४॥ १११-नाग बरवे की ठुमरी। यह तपोबन वह बन हैरी, जहां लिया श्रीजी ने जोग ॥ टेक ॥ चक्रवर्ति भये तीन जिनेश्वर, जानत हैं सब लोग री॥१॥ तृणवत तजि बनफं गये प्रभु, त्याग सकल सुख भोगरी ॥२॥ गरभ जनम तप केवल ह्यांभयो, वानीखिरी थी अमोघ री.॥३॥ बहुत जीव तिरे इस वन से, कट गये कर्म कुरोग री॥४॥
SR No.010454
Book TitlePrachin Jainpad Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvani Pracharak Karyalaya Calcutta
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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