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________________ [ ४१ ] अभूषण, सहस अठारह लायो || १ | छिमा महावर हित मित महेंदी, सरल सुगंध रचायो । चुरला सत्य शौच भुज भूषण, संजम शीस गुरुंदायो ॥ २ ॥ तप दुलड़ी नथ त्याग अकिंचन, व्रत लटकन लटकायो । गुणगण गोप गुलाल करमरज, घट बृज मांहि उड़ायो || ३ | भर पिचकारी भाव दयारस, पिया संग फाग मचायो । राधे सुमति निरखि पिक नैनन, आनंद उर न समायो ॥ ४ ॥ } ८७- पढ उपदेशी - राग धमाल होली की चाल में । अरे करले सफल जनम अपना, अब करले, अब करले सफल० ॥ टेक ॥ करले देव धरम गुरु पूजा, जीवन है निशिका सुपना ॥ १ ॥ विषयन में मति जन्म गमावै, यह है शठ भुसका तपन ॥ २ ॥ दान शील तप भावन भाले, तन जोवन सब है खपना ॥ ३ ॥ दृग सुख पर उपगार बिना सब झूठी है जग की थपना ॥ ४ ॥ ८८ - रागकाफ़ी । } ऐसो नर भव पाय गँवायो । हे गँवायो - ऐसो नर भव ॥ टेक ॥ धन ' पाय दान नहिं दोनो चारित चित नहिं लायो श्री जिनदेव की सेवन कीनो, मानुष जन्म लजायो--जगत में आयो न आयो ॥ १ ॥ विषय कषाय बढ़ो प्रति दिन दिन, आतम वल खु घटानो । तजि सतसंग भयो तु कुलंगी, मोक्ष कपाट लगायो नरक को राज कमायो ॥ २ ॥ रजक श्वान सम फिरत निरंकुश, मानत नाहि मनायो । त्रिभुवन पति होय भयो है
SR No.010454
Book TitlePrachin Jainpad Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvani Pracharak Karyalaya Calcutta
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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