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________________ [३३] तुम बिन कौन हरै भव बोधाजी, सब जग देखा छान ॥३॥ दासनैनसुख कछु नहिं मांगत, जीदीजिये शिवपुरथान ॥४॥ ६९-रागनी जगला झंझोटी मारवा दादग किस विधि कीने करम चकचूर, थारी परम छिमापै जी अचंभा मोहि आवै मभु, किस विधिः ॥ टेक ॥ एक तो प्रभु तुम परम दिगम्बर, वस्त्र शस्त्र नहिं पास हजुर। दूजे जीन दया के सागर, तीजे संतोषी भरपूर ॥१॥ चौथे प्रसु तुम हित उपदेशी, तारण तरण जगत मशहूर । कोमल सरल पचन सतवक्ता निर्लोभी संजम तपसूर ॥२॥ त्यागी वैरागी तुम साहिब, आकिंचन व्रत धारी भूर । कैसे सहस्त्र अठारह दुषण, तजि जीतो काम करूर ॥ ३ ॥ कैसे ज्ञानावर न निवारो, कैसे गेरो अदर्शन चूर । कैसे मोहमल्ल तुम जीतो, अन्तराय कैसे कियो निमूर ॥४॥ कैसे केवल ज्ञान उपायो, कैसे किये चारू घाती दूर । सुरनर मुनि सेवे चरण तुम्हारे, फिर भी नहिं प्रभु तुमकू ग़रूर ॥ ५॥ करत आल अरदास नयनसुख, दीजे यह मोहि दान ज़रूर । जनम जनम पद पङ्कज सेऊ, और न कछु चित चाह हजूर ॥ ६॥ (७०) जिल बिध कीने करम चकचूर-सोई विधि बतलाऊं-तेरा भरम मिटाऊं बीरा जिस विधि कीने करम चकचूर-टेकसुनो संत अरहंत पंथजन-स्वपर दया जिसघट भरपूर-त्याग प्रपंचनिरीह करें तप-ते नर जीतें कर्म करूर ॥ १॥ तोड़े क्रोध
SR No.010454
Book TitlePrachin Jainpad Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvani Pracharak Karyalaya Calcutta
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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