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________________ [ ७ ] ८- चाल धुरपद [ रत्नत्रय धर्म को नमस्कार ] लागरे तू मोक्ष मग्ग, रत्नत्रय मांदि पग्ग । मोरै मतनाहि डग्ग, पहुँचै शिव धामरे ॥ टेक ॥ सम्यकू मई दृष्टिठान, हित अरु अनहित पिछान | संशय भ्रमभान ज्ञान, चिंतामणि थामरे ॥ १॥ पूंजी परभवको जान, सम्यक् चारित्र आन । टूटैं अघजाल मुक्ति, पावे विन दामरे ॥ २ ॥ तन धन आशा विहाय, कृषकर काया कषाय । कोई न करि है सहाय, जवह अघलामरे ||३|| नैनानंद कहत मीत, भाषी सतगुरुनै नीत । वोवै बबूल तौ न, लागैंगे आमरे ||४|| ६- चालधुरपद [ १६ कारण भावना ] भारे दर्शन विशुद्ध, तजकर परणति विरुद्ध । प्रवचन वत्स लसुबुद्ध, आदिक बल फुरकै ॥ टेक ॥ तीर्थ कर प्रकृतसार ताकी यह देनहार | आराधन युत संभार, अपनी उर दुग्कै ॥१॥ जिन पद अरिविंदसेय सतगुरकी सरण लेय || आगम में चित्त देय, टै अचुरिकै ||२|| आगे कुछ सिद्ध नाहि दोनो भव विगड जाय भरमै गो फेर २ रोगे झुरझुर के ॥३॥ भरमों चहुँगति मंझार, नैनानंद सुनले यार । कुविसन की देवटार, भागै मति दूरिकै ॥४॥ १० - चाल धुरपद (पंचपरमेष्टि नमस्कार ) चेतरे अचेत मीत लीनों चिरकाल बीत तजकै परमाद रीति अवतो तू जागरे ॥ टेक ॥ भजले पर ब्रह्मरूप अर्हन सर्वज्ञभूप सिद्धन के गुण अनूप चितवन में लागरे ॥ १ ॥ आचारज अरु
SR No.010454
Book TitlePrachin Jainpad Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvani Pracharak Karyalaya Calcutta
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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