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________________ बुधजन विलास टेक चहुंगति फिरत अनंतकालतें, अपने सदनकी सुधि भौराना ॥ तनके० ॥१॥ तन जड़ फरस गंध रसरूपी, तू तो दरसनज्ञान निधाना, तनसौं ममत मिथ्यात मेटिकै, बुधजन अपने शिवपुर जाना ॥ तनके ॥२॥ १६ राग-पुरवी एकतालो। नैन शान्त छबि देखि छके दोऊ ॥ नैन टेक॥ अब अद्भुत दुति नहिं बिसराऊं, बुरा भला जग कोटि कहो कोऊ ॥ नैन० ॥१॥ बड़ भागन यह अवसर पाया सुनियोजी, अब अर ज मेरा कहूं । भवभवमें तुमरे चरननको, बुधजन दास सदा हि बन्यौ रहूं ॥ नैन० ॥२॥ ___२० पूरवी जल्द तितालो। हरनाजी जिनराज, मोरी पीर हरना०॥ टेक ॥ श्रान देव सेये जगवासी, सरयो नहीं मोर काज ॥ हरना० ॥१॥ जगमें बसत अनेक सहज ही, प्रनवत विविध समाज । तिनपै इष्ट अनिष्ट कल्पना, मैटोगे महाराज ॥ हरना०२
SR No.010454
Book TitlePrachin Jainpad Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvani Pracharak Karyalaya Calcutta
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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