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________________ [ ४६ ] रोग सोग दुख दूर पलाय । 'सेवा देव करें मन लाय, विघन उलट मंगल ठहराय ॥ भोर० ॥३॥ डायन भूत पिशाच न छल, राजचोरको जोर न चलै । जस आदर सौभाग्य प्रकास, धानत सुरग मुकतिपदवास ॥ भोर० ॥४॥ ___ आयो सहज बसन्त खेल सब होरी होरा ।। ॥टेक। उत बुधि दया छिमा बहु ठाढ़ी, इत जिय रतन सजै गुन जोरा ॥ आयो० ॥१॥ ज्ञान ध्यान डफ ताल बजत हैं, अनहद शब्द होत घनघोरा । धरम सुराग गुलाल उड़त है, समता रंग दुहुँने घोरा ॥ आयो० ॥२॥ परसन उत्तर भरि पिचकारी छोरत दोनों करि करि जोरा। इतनै कहै नारि तुम काकी, उततै कहैं कौनको छोरा ॥ आयो० ॥ ॥३॥ आठ काठ अनुभव पावकमें, जल वुझ शांत भई सब ओरा । धानत शिव आनन्दचन्द छवि, देखें सज्जन नैन चकोरा ॥४॥ (८७) अजितनाथसों मन लावो रे ॥ टेक ॥ करसों ताल वचन मुख भाषौः अर्थमें चित्त लगावो रे
SR No.010454
Book TitlePrachin Jainpad Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvani Pracharak Karyalaya Calcutta
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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