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________________ ( 29 } सर्व विरतोपि भावय नवचपदार्थान् सप्ततत्वानि । जीवसमासान् मुने ? चतुर्दश गुणस्थान नामानि || अर्थ - भां मुने ? तुम सर्व प्रकार हिमादिक पापों से विरक्त हो तब भी नव पदार्थ, सप्ततत्व, चौदह जीव समास और चौदह गुणस्थानों के स्वरूप को भावो ( विचारो ) नवविहं वंपयदि अब्वंमंदसविहं पमोत्तृण । मेहुण सणासत्तो भमिओसि भवणवे भीमे ॥ ९८ ॥ नवविधं ब्रह्मचर्य प्रकटय अत्रह्मदशविधं प्रमुच्य । `मैथुन संज्ञाशक्तः भ्रमितोसि भवार्णवे भीमे ॥ अर्थ- मां साधो ? तुम दश प्रकार की काम अवस्था को छोड़ कर नव प्रकार से ब्रह्मचर्य को प्रकट करो, तुमने मैथुन लम्पटी होकर इस भयानक संसार में बहुत काल भ्रमण किया है स्त्री चिन्ता, स्त्री के देखने की इच्छा, निश्वास, ज्वर, दाह, भोजन में अरुचि, बेहोशी प्रताप, जीन में संदेह और मरण यह दम अवस्था काम बेदना की है स्त्री विषयाभिलाषा त्याग १ अङ्ग स्पर्श त्याग २ कामां दीपकरसों का न खाना ३ स्त्री संवित स्थान आदि पदार्थों को सेवन न करना ४ स्त्रियों के कपोलादिकां को न देखना ५ स्त्रियों का आदर सत्कार न करना ६ अतीत भांगों का स्मरण न करना ७ आगामी के लिये वांछान करना ८ मनोभिलिषित विषयों का न सेवना ९ नौ प्रकार ब्रह्मचर्य ग्रहण के हैं यह भावसहिदय मुणिणो पावइ आराहणा चउकंच । भावहियो मुणिवर भमइ चिरं दीह संसार ॥९९॥ भावमहितश्च मुनीनः प्राप्नोति अराधना चतुष्कं च । भावरहितो मुनिवरः भ्रमति चिरं दीर्घसंसारे ॥ अर्थ -- जां मुनिपुङ्गव भावना सहित हैं ते चारों ( दर्शन शान चरित्र और तप ) आगधनाओं को पावे हैं ( अर्थात ) मोक्ष पाव हैं । और जो मुनिवर भाव रहित हैं ते इस दीर्घ (पंच परिवर्तन रूप ) संसार में बहुत काल भ्रम हैं ।
SR No.010453
Book TitleShat Pahuda Grantha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Siddhant Pracharak Mandali Devvand
PublisherJain Siddhant Pracharak Mandali Devvand
Publication Year
Total Pages149
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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