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________________ . ( ८५ ) मंजसु इदियसेणं भंजसु मणमक्कणं पयत्तेण । माजण रंजण करणं वाहिर वय वेसमाकुणसु ॥१०॥ __ भङ्ग्धि इन्द्रियसेनां भङ्ग्यि मनोमर्कटें प्रयत्नेन । मा जनरञ्जन करणं वाह्यव्रतवेश ? माकाः ।। अर्थ-~-भो मुन ? तुम स्पर्शन रसना घ्राण चक्षु और कर्ण इन्द्रिय रूपी सना को वश करा और मनरूपी बन्दर को प्रयत्न से ताड़ना करो वश करा, भा वाह्य ही व्रतों को धारण करने वालो अन्य लोकों के मन को प्रसन्न करने वाले कार्यों का मत धारण करो। णव णोकसायवगं मिच्छत्तंचय सुभाव सुद्धिए । चेइय पवयणगुरुणं करोहिं भत्तिं जिणाणाए ॥२१॥ नवनोकपाय वर्ग मिथ्यात्वं त्यज भावशुद्धय । चैत्य प्रवचन गरूणां कुरु भक्ति निनाज्ञया । अर्थ--भो माधा ? तुम आत्मीक भावों को निर्मल करने के लिये हाम्यादिक ९ ना कपायों के समूह को और ५ मिथ्यात्व को त्यागो, और जिन प्रतिमा, जैन शास्त्र और दिगम्बर साधु जिन आशानुसार इनकी भक्ति वन्दना पूजा वैयावृत्य कंग। तित्थयर भाभियत्थं गणहरदेबेहि गंथियं संम्म । भावहि अणुदिण अतुलं विसुद्ध भावेण सुयणाणं ॥२२॥ तीर्थकर भाषितार्थ गणधरदवैः ग्रन्थिनं सम्यक् । मावय अनुदिनम् अतुलं विशुद्ध भावन श्रुत ज्ञानम् ॥ अर्थ--उस अनुपम श्रुतज्ञान को तुम शुद्ध भाव कर निरन्तर भावो जिसमें श्री अर्हन्त देव का कहा हुवा अर्थ है और जिसको गणधर देवों ने रचा है पाऊण णाणसलिलं णिम्मह तिसडाह सोसउम्मुक्का । होति सिवालयवासी तिहुवण चूडामणि सिद्धा ॥९॥ प्राप्य ज्ञानसलिलं निर्मथ्या तृषादाह शोषोन्मुक्ताः । भवन्ति शिवालय वासिनः त्रिभुवन चूडामणयः सिद्धाः॥
SR No.010453
Book TitleShat Pahuda Grantha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Siddhant Pracharak Mandali Devvand
PublisherJain Siddhant Pracharak Mandali Devvand
Publication Year
Total Pages149
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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