SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 88
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ८० ) ऐसी उत्तम राजलक्ष्मी को पाता है जो विद्याधर देव और मनुष्यों के समूह से संस्तुत की जाती है पूजी जाती है चक्रवर्ती की लक्ष्मी ही नहीं किंतु बांधि ( स्नत्रय ) का भी पावे है। भावंत्तिविहिपयारं सुहासुहं शुद्धमेव णायव्यं । अमुहं च अहरुदं सुहधम्मं जिणवरिंदेहिं ॥७६॥ भावं त्रिविधिप्रकारं शुभाशुभं शुद्धमेव ज्ञातव्यम् । अशुभं च तरौद्रं शुभं धर्म जिन वरेन्द्रः ॥ अर्थ-जिनेन्द्रदेव ने भाव तीन प्रकार का कहा है शुभ, अशुभ और शुद्ध, तिन में आर्तरौद्र तो अशुभ और धर्म भाव शुभ जानना सुद्धं मुद्धसहावं अप्पा अप्पम्मि तच्चणायव्वं । इदि जिणवरेहि भणियं जं सेयं तं समारुयह ॥७७॥ शुद्धं शुद्ध स्वभावं आत्माआत्मनि तच्च ज्ञातव्यम् । इति मिनवरंभणितं यत् श्रयः तत् समारोहय ।। __ अर्थ-जो शुद्ध ( कर्म मल रहित ) है वह शुद्ध स्वभाव है वह आत्मम्वरूप में ही है एस जिनवरदेव का कहा हुवा जानना । भी भव्या ? तुम जिम का उत्तम जाना उसका धारण करो । अर्थात् । आर्तरौद्र रूप अशुभ भावों को छोड़ कर धर्म ध्यान रूपी शुभ भावों का अवलम्बन कर शुद्ध होवा ॥ पयलियमाणकसाओ पयलिय मिच्छत्त मोहसमचित्तो। पावइ तिहुयण सारं बोहिं जिण सासणे जीओ ॥७८॥ प्रगलिनमान कषाय. प्रगलितमिथ्यात्व माहसमचित्तो। प्रामोति त्रिभुबनसारां बोधिं जिन शासने जीवः ॥ अर्थ-जिसने मान कपाय दूर कर दिया है मान कषाय और समचित्त होकर अर्थात् महल मसान और शत्रु मित्र आदिक को समान गिनत हुवे अत्यन्त नष्ट किया है मिथ्यात्व तथा माह जिस ने वह जीव एमी बांधिको प्राप्त करता है जो त्रिलोक में उत्तम है ऐसा जिन शास्त्रों में कहा है।
SR No.010453
Book TitleShat Pahuda Grantha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Siddhant Pracharak Mandali Devvand
PublisherJain Siddhant Pracharak Mandali Devvand
Publication Year
Total Pages149
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy