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________________ ( ६९ ) पर तिष्टा हूं ऐसा संज्वलन मान का अंश बना रहा । जब भरतेश्वर ने एक वर्ष पीछे उनकी स्तुति की तब मान दूर होते ही जगत् प्रकाशक केवल ज्ञान प्रक हुवा और मुक्ति पधारे। इससे आचार्य कहैं हैं कि ऐसे २ धीर वीर भी विना भाव शुद्धि के मुक्त नहीं हुवे तो अन्य को क्या कथा इससे भो मुनिवर भाव शुद्धि करो । महपिंगो नाम मुणी देहाहारादि चत्तवावारो । सवणत्तणं ण पत्तो णियाणमित्रोण भवियणुय ॥ ४५ ॥ मधुपिङ्गो नाम मुनिः देहाहारत्यक्तव्यापारः । श्रमणत्वं न प्राप्तः निदान मात्रेण भव्यनुत ? || अर्थ- - भव्य पुरुषों से नमस्कार किये गये हे मुनि शरीर और भोजन का त्याग किया है जिसने ऐसा मधुपिङ्गलनामा मुनि निदान मात्र के निमित्त से श्रमणपने को ( भावमुनिपने को ) न प्राप्त हुवा | मधुपिङ्गल की कथा पद्मपुराण हरि वंश पुराण में वर्णित है । अण्णं च वसिणि पत्तो दुक्खं नियाण दोसेण । सो णच्छिवास ठाणो जच्छ ण टुरुटुल्लिओजीवो ॥ ४६ ॥ अन्मच्च वशिष्टमुनिः प्राप्तः दुःखं निदान दोषेण । तन्नास्ति वासस्थानं यत्र न भ्रान्तो जीवः ॥ अर्थ - और भी एक वशिष्टनामा मुनि ने निदान के दोषकर दुःखों को पाया है । है भव्योत्तम ? ऐसा कोई भी निवास स्थान नहीं है जहां यह जीव भ्रमा न हो । वशिष्ट तापसी ने चारण ऋद्धिधारी मुनि से सम्बोधित होकर जिन दीक्षा ली और अनेक दुद्धर तप किये परन्तु निदान करने से उग्रसेन का पुत्र कंस हुवा और कृष्णनारायण के हाथ से मृत्यु को पाकर नरक गया । सो णच्छितं परसो चउरासीलक्खजोणि वासम्मि | भाव विरओवि सवणो जच्छ ण टुरुटिल्लिओ जीवो ||४७ || स नास्ति त्वं प्रदेशः चतुरशीति लक्षयोनि वासे । भावविरतोऽपि श्रवण यत्र न भ्रान्तः जीवः ॥
SR No.010453
Book TitleShat Pahuda Grantha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Siddhant Pracharak Mandali Devvand
PublisherJain Siddhant Pracharak Mandali Devvand
Publication Year
Total Pages149
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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