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________________ ( ६४ ) रयणतेमु अलदे एवं भमिओसि दीहसंसारे । इयजिणवरेहि भणिये तं रयणतयं समायरह ॥ ३० ॥ रत्नत्रये स्वलब्धे एवं भ्रमितोसि दीर्घसंसारे । इति जिनवरैमाणितं तत् रत्नत्रयं समाचर ॥ अर्थ--तुमने रत्नत्रय (सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्र) के न मिलने पर इस अनन्त संसार में उपर्युक्त प्रकार भूमण किया है ऐसा श्री अर्हन्तदेव ने कहा है इस से रत्नत्रय को धारण करो। अप्पा अप्प म्मिर ओ सम्माइट्ठी हवेफुड जीवा । जाणइ तं सराणाणं चरदिह चारित्त मग्गुत्ति ॥ ३१ ॥ आत्मा आत्मनिरतः सम्यग्दृष्टि भवति स्फुटं जीवः । जानाति तत् संज्ञानं चरतीह चारित्रं माग इति ॥ अर्थ--रत्नत्रय का वर्णन दो प्रकार है, निश्चय और व्यवहार निश्चय यहां निश्चयनयकर कहते है। जो आत्मा आत्मा मलीन होअर्थात यर्थाथ स्वरूप का अनुभव करे तद्रूप होकर श्रद्धान कर सो सम्यगदृष्टि है। आत्मा को जाने सो सम्यगशान है। आत्मा में लीन होकर ओ आचरण करे रागद्वेष से निवृत्त होवे सा सम्यकचारित्र है। इस निश्चय रत्नत्रय का साधन व्यवहार रत्नत्रय है। सच देव गुरु और शास्त्र का श्रद्धान करना व्यवहार सम्यग्दर्शन है, जीवादिक सप्त तत्वों का जानना व्यवहार सम्यग्ज्ञान है तथा पाप क्रियाओं से विरक्त होना सम्यक्चारित्र है। अण्णे कुमरण मरणं अणेय जम्म तराइ मरिओसि । भावय सुपरण मरणं जरमरण विणासणं जीव ॥ ३२ ॥ अन्यस्मिन् कुमरण मरणम् अनेक जन्मान्तरेषु मृतोसि । भावय सुमरण मरणं जन्ममरण निशानं जीव १ ॥ अर्थ- हे जीव? तुम अनेक जन्मों में कुमरण मरण से मरे हो अब तुम जन्म मरण के नाश करने वाले सुमरण मरण को भावा।
SR No.010453
Book TitleShat Pahuda Grantha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Siddhant Pracharak Mandali Devvand
PublisherJain Siddhant Pracharak Mandali Devvand
Publication Year
Total Pages149
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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