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________________ प्रतों से भ्रष्ट होय संघ का अधिनय करे वह कुशील है, ज्योतिष मन्त्र तन्त्र से आजीविका करै राजादिक का सेवक होवै वह संसक्त है, जिन आज्ञा से प्रतिकूल चारित्र भ्रष्ट आलसी को अवसन्न कहते है, गुरु कुल को छोड़ अकेला स्वछन्द फिरता हुवा जिन बचन को दूषित बतानेवाला मृगचारी है, इसी को स्वछन्द भी कहते हैं । यह पांचों श्रमणाभास (मुनिसमान हात होते हैं पर मुनि नहीं)जिनधर्म बाह्य हैं। देवाण गुण विहूई रिदिमाहप्प बहुविहं दहुँ । हो जण हीणदेवो पत्तो वहुमाणसं दुःखं ॥१५॥ देवानां गुण विभूति ऋद्धि महात्म्यं वहुविधं दृष्ट्वा । मूत्वा हीनदेवो प्राप्त वहुमानसं दुःखम् ॥ अर्थ-हे जीव जब तू हीन ऋद्धि देव भया तब तूने अन्य महर्धिक देवों के गुण ( अणिमादिक) विभूति (स्त्री आदिक) और ऋद्धि के महत्व को बहुत प्रकार देख कर अनेक प्रकार के मानसीक दुःखों को पाया। चउविह विकहासत्तो मयमत्ता असुह भाव पयडच्छो । होऊण कुदेवत्तं पत्तोसि अणेय वाराओ ।।१६।। चतुर्विधविकथासक्तः मदमत्तः अशभभावप्रकटार्थः । भूत्वा कुदेवत्वं प्राप्तोसि अनेकवारान् ।। अर्थ-हे आत्मन् ? तुम (द्रव्यलिङ्गीमुनि होय ) चार प्रकार की विकथा ( अहार, स्त्री, राज, चोर, ) आठ मदों कर गर्वित तथा अशुभ परिणामों को प्रकट करने वाले होकर मनेक वार कुदेव (भवनवासी आदि हीन देव) हुवे हो। अमुई वाहत्थे हिय कलिमळ बहुला हि गभ वसहीहिं । बसिओसिचिरं कालं अणेय जणणीहिं मुणिपवर ॥१७॥ अशुचिषु वीमत्सासु कलिमलवहुलामु गर्मवसतिषु । उपितोसि चिरकालं अनेका जनन्यः हि मुनिप्रवर ॥
SR No.010453
Book TitleShat Pahuda Grantha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Siddhant Pracharak Mandali Devvand
PublisherJain Siddhant Pracharak Mandali Devvand
Publication Year
Total Pages149
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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