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________________ ( ५६ ) परिणामे अशुद्धे प्रन्थान मुञ्चति वाह्यान यदि । वाह्यप्रन्थ त्यागः भाव विहीनस्स किं करोति ॥ - अर्थ — अन्तरङ्ग परिणामों के मलिन होने पर जो बाह्यपरिग्रह (वस्त्रादिकों ) को छोड़े है सो वाह्य परिग्रह का त्याग उस भावहीन सुनि के वास्ते क्या करे है ? अर्थात निष्फल है । जाणहि भावं पढमं किं ते लिंगेण भावरहियेण । पथिय शिवपुरि पथं जिण उवइद्वं पयत्तेण ॥ ६ ॥ जानीहि भावं प्रथमं किं ते लिङ्गेण भावरहितेन । पथिक शिवपुरपिथः जिनेन। पदिष्टः प्रयत्नेन || अर्थ - हे भव्य ? भाव ( अन्तरङ्ग परिणामों की शुद्धता ) को मुख्य (प्रधान) जानो तुम्हारे भावरहित वाह्य लिङ्ककर क्या फल है ? (कुछ नहीं है) पथिक अर्थात हे मुसाफिर मोक्ष पुरी का मार्ग जिनेंद्र देवने भाव ही उपदेशा है इस कारण प्रयत्न से इसको ग्रहण करो । भावरहिण स उरिस अणाइ कालं अनंत संसारे । गहि उज्झयाओ बहुसो बाहिर णिग्गंथ रुवाइ ॥ ७ ॥ भावरहितेन सत्पुरुष अनादिकालम् अनन्त संसारे | ग्रहीता उज्झिता बहुशः वाह्यनिर्मन्थरुपाः || अर्थ - हे सत्पुरुष तुमने अनादि काल से इस अनन्त संसार में बहुत बार भावलिङ्ग विना बाह्य निर्मन्थ रूप को धारण किया और छोडा परन्तु जैसे के तैसे ही संसारी बने रहे । भीसण णरय गईए तिरयगईए कुदेव मणुगइ ए । पत्तो सित्ती दुक्खं भावहि जिण भावणा जीव ॥ ८ ॥ भीषण नरकगतौ तिर्यग्गतौ कुदेव मनुष्यगतौ । प्राप्तोसि तीव्र दुःखं भावय जिन भावनां जीव || अर्थ - हे जीव ! तुमने भावना विना भयानक नरक गति में, तिर्यञ्च गति में, कुदेव और कुमानुष गति में अत्यन्त ( तीव्र ) दुःखं को पाया है इससे तुम जिन भावना को भाबों चिन्तवो ।
SR No.010453
Book TitleShat Pahuda Grantha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Siddhant Pracharak Mandali Devvand
PublisherJain Siddhant Pracharak Mandali Devvand
Publication Year
Total Pages149
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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