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________________ ( ४३ ) अर्थ-व्रत ( महावत ) और सम्यकत्व में शुद्ध पाञ्च इन्द्रियों के मंयम सहित, निरपेक्ष अर्थात् इस लोक और परलोक सम्बन्धी विषय वांछा रहित ऐसे शुद्ध आत्म स्वरूप तीर्थ में दीक्षारुपी उत्तम स्नान से पवित्र होवो। जणिम्मलं सुधम्म सम्पत्तं संजमं तवं गाणं । तं तिच्छं जिणमग्गे हवेइ यदि संतभावेण ॥ २७॥ ___ य निर्मल सुधर्म सम्यक्त्वं संयम तपः ज्ञानं । त तीर्थ जिनमार्गे भवति यदि शान्तमावेन ।। अर्थ-निर्मल उत्तम क्षमादि धर्म, सम्यग्दर्शन, संयम द्वादश प्रकार का तप, सम्यगज्ञान, यह तीर्थ जिन मार्ग में हैं यदि शान्त भाव अर्थात् कपाय रहित भाव से सेवन किये जाँय तो यह जैन धर्म के तीर्ध हैं। णामवणहिंय संदव्येभावेहि सगुणपजाया । चउणागादि संपदिमं भावा भावंति अरहतं ॥ २८ ॥ नाम स्थापनायां हि च संद्रव्ये भावे हि सगुणपर्यायाः । च्यवणागति संपदइमेभावाः भावयन्ति अर्हन्तम् ।। अर्थ-~-नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव, इनसं गुणपर्याय सहित अईन्त जान जाते हैं तथा च्यवण अर्थात अवतार लेना आगति अर्थात भरतादिक क्षेत्रों में आना, सम्पत् अर्थात पंचकल्याणकाका होना यह मब अहन्तपन को मालूम कराते हैं। दसण अणंत णाणे मोक्खो णदृढ कम्मबंधेण । णिरुवमगुणमारूढो अग्हनो एरिसो होई ॥ १९ ॥ दर्शने अनन्ते जाने मोक्षानष्टाष्टकमबन्धेन । निरूपमगुणमरूढः अर्हन् इदृशो भवति ॥ अर्थ – अनन्तदर्शन और अनन्त ज्ञान के विद्यमान होने पर अष्टकर्मा के वन्धका नाठा होनेसे मानो मोक्षही हो गये हैं और
SR No.010453
Book TitleShat Pahuda Grantha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Siddhant Pracharak Mandali Devvand
PublisherJain Siddhant Pracharak Mandali Devvand
Publication Year
Total Pages149
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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