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________________ ( ४० ) तस्य करहपणामं सव्वं पूज्जंय विणय वच्छलं । जस्यय दंसणणाणं अस्थि ध्रुवं चेयणाभावो ॥१७॥ तस्य च कुरुत प्रणामं सर्वां पूजां विनय वात्सल्यं । यस्य च दर्शनं ज्ञानम्, अस्ति ध्रुवं चेतनाभावः || अर्थ - जिन में दर्शन और ज्ञानमयी चेतन्य भाव निश्चल रूप विद्यमान है उन आचार्यों और उपाध्याय और सर्व साधुओं को प्रणाम करो उनकी सर्व (अष्ट ) प्रकार पूजा करो विनय करो और वात्सल्य भाव (वैयात्य ) करो । तववयगुणेहि सृद्धो जाणदि पिच्छे सुद्धसम्मत्तं । अरहंत मुद्दएमा दायारो दिवक्खसिखाया ॥ १८ ॥ तपोवतगुणैः शुद्धः जानाति पश्यति शुद्धसम्यकत्वम् । अर्हमुद्रा एषा दात्री दीक्षा शिक्षायाः ॥ अर्थ- -तप और व्रत और गुणां कर शुद्ध हो, यथार्थ वस्तुस्वरूप के जानने वाला हो, शुद्धसम्यग दर्शन के स्वरूप का देखने वाला हो वह आचार्य अर्हन्त मुद्रा है । दिसंजम मुद्दाए इंदियमुद्दा कसाय दिढमुद्दा | मुद्रा इहणाणाए जिण मुद्दाएरिसा भणिया ||१९|| दृढ संयम मुद्राया इन्द्रियमुद्रा कषाय दृढमुद्रा । मुद्रा इह ज्ञाने जिनमुद्रा ईदृशी भणिता ॥ अर्थ- दृढ़ अर्थात किसी प्रकार भी चलाया हुवा न चले ऐसे संयम से जिन मुद्रा होती है, द्रव्येन्द्रियों का संकोचना अर्थात कछवे की समान इन्द्रियों को संकोच कर स्वात्मा में स्थापित करना इन्द्रिय मुद्रा है, क्रोधादिक कषायों को दृढ़ता पूर्वक संकोच करना, कमकरना, नाश करना कषाय मुद्रा है। ज्ञान में अपने को स्थापित करना ज्ञान मुद्रा है ऐसी जिन शास्त्र में जिन मुद्रा कही है।
SR No.010453
Book TitleShat Pahuda Grantha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Siddhant Pracharak Mandali Devvand
PublisherJain Siddhant Pracharak Mandali Devvand
Publication Year
Total Pages149
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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