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________________ ( ३८ ) अर्थ-दर्शन और शान से जिन का चारित्र शुद्ध है ऐसे तीर्थरदेव की प्रतिमा जिन शास्त्रों में ऐसी कही है जो निर्गन्ध हो अर्थात् वन भूषण जटा मुकुट आयुध रहित हो, तथा वीतराग अर्थात् ध्यानस्थ नासाग्र दृष्टि सहित हो । जैनशास्त्रानुकूल उत्कृष्ट हो और शुद्ध धातु आदि की बनी हुई हो। जं चरदि सुद्धचरणं जाणइपिच्छेइ सुद्ध सम्मत् । सा होई वंदणीया णिग्गंथा संजदा पडिमा ॥११॥ ___ यः चरति शुद्धचरणं जानाति पश्यति शुद्धसम्यक्तुम् । सा भवति वन्दनीया निर्ग्रन्था संयता प्रतिमा ॥ अर्थ-जो शुद्ध चारित्र का आचरण करत हैं. जैन शास्त्र को जानते हैं तथा शुद्ध मम्यकत्व स्वरूप आत्मा का श्रद्धान करते हैं उन संयमी की जा निग्रन्थ प्रतिमा है अर्थात शरीर वह बन्दनीय है। भावार्थ -मुनियों का शरीर जंगम प्रतिमा है और धातु पापाण आदिक से जो प्रतिमा बनाई जाव वह अजङ्गम प्रतिमा है। दसण अणन णागणं अमन वाग्यि अणनमुकवाय । सास यमुक्व अंदहा मुक्का कम ह यः ॥१२॥ निरुवम मचलम व हा णिम्मिविया जंगणरूवण । सिद्धा ठाणम्मिठिया वोलर पाडमा धुवा सिद्धा ॥१३॥ दशन मनन्तज्ञानम् अनन्त यमनम्नसुखं च । शास्वतमुखा अदेहा मुक्ता कर्माष्टबन्धैः ॥ निरुपमा अचला अक्षोमा निर्मापता जङ्गमेन रूपेण । सिद्धस्थानेस्थिता व्युत्सगप्रतिमा ध्रुवा सिद्धा ।। अर्थ-जिन के अनन्त दर्शन अनन्त ज्ञान, अनन्त वीर्य अनसख विद्यमान है, अविनाशी सुख स्वरूप है, देह से रहित हैं. आठ कर्मों से छूट गये हैं संसार में जिनकी कोई उपमा नहीं है, जिनके प्रदेश अचल हैं, जिनके उपयोग में क्षोभ नहीं है, जंगम रूप कर निर्मापित हैं, कर्मो से छूटने के अनन्तर एक समयमात्र ऊर्ध्व
SR No.010453
Book TitleShat Pahuda Grantha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Siddhant Pracharak Mandali Devvand
PublisherJain Siddhant Pracharak Mandali Devvand
Publication Year
Total Pages149
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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