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________________ अपरिग्गह समणुण्णे सुसद्दपरिसरस रुवर्गधेसु । रायदोसाईणं परिहादो भावणा होति ॥३६॥ अपरिग्रह समनोसेषु शब्द स्पर्श रस रूप गन्धेषु । रागद्वेषादीनां परिहारो भावना भवन्ति ॥ अर्थ-शब्द स्पर्श रस रूप गन्ध चाहे मनोज्ञ अर्थात मन भावने हो वा अमनोज्ञ अर्थात अप्रिय हा उनम रागद्वेष न करना अपरिग्रह महावत की ५ भावना है। इरि भासा एसण जासा आदाणं चेवणिकवेवो । संजमसोहणिमित्ते रवंति जिणा पंच समदीओ ॥३७।। ईया भाषा एषणा यासा आदानं चेव निक्षेपः । संयमशोध निमित्तं रव्यान्ति जिनाः पञ्च समितयः ॥ अर्थ----इर्याममिति अर्थात चार हाथ आगे की भूमि को निरखते हुवे चलना १ भाषाममिति अर्थात शास्त्र के अनुमार हित मित प्रिय बचन बालना २ एपणा समिति अर्थात शास्त्र की आज्ञानुमार दाप रहित आहार लना ३ आदान ममिति अर्थात देखकर पुस्तक कमण्डलु को उठाना ४ निक्षेपण ममिति अर्थात देखकर पुस्तक कमण्डलु का रखना ५ यह पांच समिति जिनेन्द्र देवन कही हैं। भव्बजण वोहणन्थं जिणमग्गे निणवरहिं जह भणियं । णाणं णाणसरुपं अप्पाणं तं वियाणेह ॥३८॥ भव्यजनबोधनार्थ जिनमार्गे जिनवरैर्यथा भणितम् । ज्ञानं ज्ञानम्वरूपं आत्मानं तं विजानीहि ॥ अर्थ-जिनन्द्र देवने जैनशास्त्रों में भव्य जीवों के सम्बोधन के लिये जैमा ज्ञान और शान का म्वरुप वर्णन किया है तिसी को तुम आत्मा जानो अर्थात यह ही आत्मा का स्वरूप है। जीवाजीवविभक्ति जो जाणइ सो हवेइ सण्णाणी। रायादि दोस रहिओ जिणसासण मोक्रवमग्गुत्ति ॥३९।।
SR No.010453
Book TitleShat Pahuda Grantha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Siddhant Pracharak Mandali Devvand
PublisherJain Siddhant Pracharak Mandali Devvand
Publication Year
Total Pages149
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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