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________________ ( २५ ) उत्साह भावना सं प्रशंसा सेवा कुदर्शने श्रद्धा । अज्ञानमोहमार्गे कुर्वन् जहाति जिनमभ्यक्त्वम् । अर्थ-~जो कुदर्शन अर्थात मिथ्यामत और मिथ्यामत के शास्त्रों में जो कि अज्ञान और मिथ्यात्व के मार्ग हैं उत्साह करते हैं, भावना करते हैं, प्रशंसा करते हैं, उपासना (सेवा ) करते हैं और श्रद्धा करते हैं, वे जिनेन्द्र के सम्यक्त्व को छोड़ते हैं। अर्थात व जैन मत धारक नहीं हैं। उच्छाह भावणा सं पसंस सेवा सुदंसणे सद्धा। ण जहति जिण सम्मतं कुव्वन्तो णाण मग्गेण ॥ १४ ॥ उत्साह भावना सं प्रशंसा सेवा सुदर्शने श्रद्धा । न जहाति जिन सम्यक्त्वं कुर्वन् ज्ञान मार्गेण ॥ अर्थ-~जो पुरुष ज्ञान द्वारा उत्तम सम्यगदर्शन ज्ञान चरित्र रूप मार्ग में उत्साह करता है, भावना करता है, प्रशंसा करता है, मेवा भक्ति पूजा करता है तथा श्रद्धा करता है वह जिन सम्यक्त्व का नहीं छोड़ता है । अर्थात वह सच्चा जैनी है। अण्णनं मिच्छत्तं वजह णाणे विसुद्ध सम्मत्ते । अह मोहं सारम्भं परिहर धम्मे अहिंसाए ॥१५॥ अजान मिथ्यात्वं वर्जय ज्ञाने विशुद्ध सम्यक्त्वे । अथ मोहं सारम्भं परिहर धर्मे ऽहिंसायाम् ॥ अर्थ-हे भव्यो ? तुम ज्ञान के होते हुवे अशान को और विशुद्ध सम्यक्तव के होते हुवे मिथ्यात्व को त्यागो तथा चारित्र के होते हुवे मोह को और अहिंसा के होते हुवे आरम्भ को छोड़ो पवज संग चाय वयट्ट सुतवे सु मंजमे भावे । होइ सुविसुद्धझाणं णिम्मो हे वीयण्यत्ते ॥१६॥ प्रव्रज्यायाम् संगत्यागे प्रवर्तस्व सुतपसि सुसंयमे भावे । भवति मुविशुद्धध्यानं निर्मोहे वीतरागले ।
SR No.010453
Book TitleShat Pahuda Grantha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Siddhant Pracharak Mandali Devvand
PublisherJain Siddhant Pracharak Mandali Devvand
Publication Year
Total Pages149
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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