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________________ ( १० ) भावार्थ-जो तीर्थकर परम देव हैं उनको मैं बन्दना करता हूं। णाणेण दसणेण य तवेण चरियेण संयमगुणेण । चउहिपि समाजोगे मोक्खो जिणसासणेदिवो ॥३०॥ ज्ञानेन दर्शनेन तपसा चारित्रेण संयम गुणेन । चतुर्णामपि समायोगे मोक्षा निनशासने उद्दिष्टः ।। अर्थ-ज्ञान, दर्शन, तप, और चारित्र इन चारों के इकट्ठा होने पर संयम गुण होता है उसही से मोक्ष होती है, ऐसा जिन शासन में कहा है। णाणं णरस्ससारं सारावि णरस्सहोइ सम्मत्तं । सम्पत्ताओ चरणं चरणाओ होइ णिव्वाणं ॥३॥ ज्ञानं नरस्य सारं सारोपि नरस्य भवति सम्यक्त्वम् । सम्यक्त्वतः चरणं चरणतो भवति निर्वाणम् ॥ अर्थ-यद्यपि पुरुष के वास्ते ज्ञान सार वस्तु है परन्तु मनुष्य के वास्त सम्यक्त्व उस से भी अधिक सार है क्योंकि सम्यक्त्व से ही चारित्र होता है और सम्यक् चारित्र से ही मोक्ष प्राप्त होता है। णाणम्मि दंसम्मिय तवेण चरिएण सम्म सहिएण । चोकंपिसमाजोगे सिद्धा जीव ण संदेहो ॥३२॥ ज्ञाने दर्शने च तपसा चारित्रेण सम्यक्त्वहितेन । चतुष्कानां समायोगे सिद्धा जीवा न सन्देहः ॥ अर्थ-सम्यक्त्व सहित शान दर्शन तप और चारित्र इन चारों के संयोग होने पर जीव अवश्य सिद्ध होता है इस में सन्देह नहीं है। कल्लाण परंपरया लहंति जीवा विशुद्ध सम्मत्तं । सम्मइंसण रयणं अञ्चेदि मुरासुरे लोए ॥३३॥ कल्याण परम्परया लमन्ते जीवा विशुद्ध सम्यक्त्वम् । सम्यग्दर्शनरत्नम् अय॑ते सुरासुरे लोके ।।
SR No.010453
Book TitleShat Pahuda Grantha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Siddhant Pracharak Mandali Devvand
PublisherJain Siddhant Pracharak Mandali Devvand
Publication Year
Total Pages149
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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