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________________ ( 19 ) जीवादिश्रद्दधनं सम्यक्तं जिनवरैः निर्दिष्टम् । व्यवहारात् निश्वयतः आत्मा भवति सम्यक्त्वम् ॥ अर्थ - जीवादि पदार्थों के श्रद्धान करने को जिनेन्द्रदेव ने व्यवहार नय से सम्यग्दर्शन कहा है और निश्चय मय से आत्मा के श्रद्धान को ही सम्यक्त्व कहते हैं । एवं जिणपण्णत्तं दंसण रयणं घरेहभावेण । सारंगुण रयणत्तय सोवाणं पदम मोक्खस्स ॥२१॥ एवं जनप्रणीतं दर्शनरत्नं धरतभावेन । सारंगुण रत्नानाम् सोपानं प्रथमं मोक्षस्य || अर्थ - भो सज्जनो उस दर्शन अर्थात् श्रद्धान को धारण करो जो कि जिनेन्द्रदेव का कहा हुआ है, जो गुण रूपी रत्नों का सार है और जो मोक्ष मन्दिर के पढ़ने की पहली सीढ़ी है । जं सक्कइ तं कीरइजं च ण सक्कइ तं य सदहणं । केवलिजिणेहि भणियं सद्दहमाणस्स सम्पतं ||२२|| यत् शक्नोति तत् क्रियते यच्च न शक्नुयात् तस्य च श्रद्दधन । केवलिजिनैः मणितं श्रद्दधानस्य सम्यक्त्वम् ॥ अर्थ - जिसका आचरण कर सके उसका करें और जिसका आचरण न कर सके उसका श्रद्धान करे, श्रद्धान करनेवालों को ही सम्यक्त होता है ऐसा केवली भगवान ने कहा है । भावार्थ-श्रद्धान और आचरण दोनों करने चाहियें, यदि आचरण न हो सकें तो श्रद्धान तो अवश्य ही करना चाहिये । दंसण णाण चरिते तवविणये णिच्च काल सुपसत्था । एदे दु वन्दणीया जे गुणवादी गणधरानां ॥२३॥ - दर्शन ज्ञान चरित्रे तपोविनये नित्य काल सुप्रस्वस्थाः । एते तु वन्दनीया ये गुणवादी गणधराणाम् ||
SR No.010453
Book TitleShat Pahuda Grantha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Siddhant Pracharak Mandali Devvand
PublisherJain Siddhant Pracharak Mandali Devvand
Publication Year
Total Pages149
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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