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________________ ( १३७ ) अर्थ- जो साधु अट्ठाईस मूल गुणों का छेदन करके अन्य वाह्य कर्म करे हैं सो पिद्धसुख को नहीं पावे हैं किंतु वह सदाकाल जिनलिङ्ग की विराधना अर्थात् बदनामी करने वाला है। किं कदादि वहिकम्म कि काहदि बहाविहंच खवणंच। किं काहिदि आदावं आद सहावस्म विवरीदो ॥९९।। किं करिष्यति वाह्यकर्म किं करिप्यति बहुविधं च क्षपणंच । ___ किं करिष्यति आतापः आत्मस्वभावस्य विपरीतः ।। अर्थ-आत्मीक स्वभाव दर्शन शान क्षमादि स्वरूप से विपरीत अज्ञान मोह कषादि सहित वाह्य कर्म क्या कुछ कर मकै है ? ( मोक्ष दे सके है ?) अर्थात् नहीं, और बहुत प्रकार किये हुवे क्षपण ( उपवाम ) कुछ कर सके हैं ? तथा आतापन योग ( धूप में कायोत्सर्ग करना ) भी कुछ कर सके हैं ? अर्थात कुछ नहीं। भावार्थ केवल शारीरक क्रिया मात्र आत्मा को निराकुल सुख नहीं कर सक है। जइ पठइ सुदाणिय जदि काहदि बहुविहेय चरित्तो। तं वालमुयं चरणं हवेइ अप्पस्स विवरीयं ।।१००॥ यदि पठति श्रुतानि च यदि करिप्यति बहुविधानिचारित्राणि। तद्वालश्रुतं चरणं भवति आत्मनः विपरीतम् ॥ अर्थ-जो आत्म स्वभाव म विपरीत वाह्य अनेक तर्क व्याकरण छन्द अलंकार साहित्य सिद्धान्त तथा एकादशाङ्ग दशपूर्व का अध्ययन करना है मो बाल श्रुत है, तथा आत्मीक स्वरूप विरुद्ध अनेक चारित्र करना बाल चारित्र है। वेरग्गपरोसाह परदव्वपरमुहोय सो होई । संसारसुहाविरत्तो सगसुद्धसुहेमुअणुरत्तो ॥ १०१॥ गुणगणविहूसियंगो हेयोपादेयणिच्छदो साहू । झाणझयणेमुरदो सो पावई उत्तमठाणं ॥१०२॥ वैराग्यपरः साधुः परद्रव्यपराङ्मुखश्च स भवति । संसारसुखविरक्तः स्वकशुद्धंसुखेषु अनुरक्तः ॥१०१॥
SR No.010453
Book TitleShat Pahuda Grantha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Siddhant Pracharak Mandali Devvand
PublisherJain Siddhant Pracharak Mandali Devvand
Publication Year
Total Pages149
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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