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________________ अर्थ-जो पुरुष जानते हुवे भी (कि यह दर्शन भ्रष्ट मिथ्या भेष धारी साधु है) लज्जा, गौरव, वा भय के कारण उन के पैरों में पड़ते हैं उन को भी बाधि अर्थात् रत्नत्रय की प्राप्ति नहीं हो सक्ती है वह भी पाप का ही अनुमोदना करने वाले हैं। दुविहंपि गन्थ तायं तिमुविजोएसु संजमो ढादि । णाणम्मि करणसुद्धे उब्भसणो दसणो होइ ॥१४॥ द्विविधमपि ग्रन्थत्यागं त्रिष्वपियोगेषु संयमः तिप्रति । ज्ञाने करणशुद्धे उद्भोजने दर्शनं भवति ॥ अर्थ- अंतरंग और वहिरंग दोनों प्रकार के परिग्रह का त्याग हो और तीनों योगों में अर्थात् मन बचन काय में संयमहो और ज्ञान में करण आर्थात् कृत कारित अनुमोदना की शुद्धि हो और खड़े हो कर हाथ में भोजन लिया जाता हो वहां दर्शन होता है । भावार्थ-ऐसा साधु सम्यग्दर्शन की मूर्ति ही है। सम्पत्तादो णाणं णाणादो सन्च भावउबलद्धी । उचलद्ध पयद्धे पुण सेयासेयं वियाणेहि ॥१५॥ सम्यक्त्वतो ज्ञानम ज्ञानातः सर्व भावोपलब्धिः । उपलब्धे पदार्थः पुनः श्रेयोऽश्रेयो विनानाति ॥ अर्थ-सम्यग्दर्शन से सम्यग्नान होता है, सम्यग्ज्ञान से जीवादि समस्त पदार्थों का ज्ञान होता है और पदार्थ ज्ञान से ही श्रेय अश्रेय अर्थात् ग्रहण करने योग्य वा त्यागने योग्य का निश्चय होता है। सेयासेयविदएह उडुद् दुस्सीलसीलवंतांवि । सील फलेणभुदयं ततो पुण लहइ णिव्वाणं ॥१६॥ श्रेयोऽश्रेयोवेत्ता उदहृत दुश्शीलश्शीलवान । शील फलेनाभ्युदयं तत पुनः लभते निर्वाणम् ॥ अर्थ -शुभ अशुभ मार्ग के जानने वालाही कुशीला को नष्ट
SR No.010453
Book TitleShat Pahuda Grantha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Siddhant Pracharak Mandali Devvand
PublisherJain Siddhant Pracharak Mandali Devvand
Publication Year
Total Pages149
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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