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________________ प्राणिबधेहि महायशः चतुरशीति लक्षयोनिमध्ये । उत्पद्यमानो म्रियमाणः प्राप्तोसि निरन्तरं दुःखम् ।। अर्थ-हे महायशसी तुम प्राणि हिंसा के निमित्त से चौरासी लाख योनियों में उपजते मरते हुए निरन्तर दुःखों को प्राप्त हुए हो। जीवाणमभयदाणं देहि मुणी पाणि भूदसत्ताणं । कल्लाण मुह णिमित्तं परम्परा तिविह सुद्धाए । १३६ ।। जीवानामभयदानं देहि मुने प्राणिभृतमत्वानाम् । कल्याणमुखनिमित्तं परम्पत्रिीवधसुद्ध्या ॥ अर्थ-भी मुन ? तुम सर्व जीवा को मन बचन काय की शुद्धि से अभय दान देवा एमा करना क्रम स तीर्थकर सम्बन्धी पक्ष कल्याणा के मुख का निमित्त है । असिय सयं करिय वाई अकिरियाणं च होइ चुलसीदी । सत्तही अण्णाणी वैणइया होन्ति वत्सा ॥ १३७ ॥ अशीति शतं क्रियावादिनामक्रियाणां च भवति च चतुरशीतिः। सप्तपष्टिरज्ञानिनां वैनयिकानां भवन्ति द्वात्रिंशत् ॥ अर्थ-मिथ्यात्व दो प्रकार है ग्रहीत और अग्रहीत । ग्रहीत के ४ भेद है, क्रियावादी १ अक्रियावादी २ अज्ञानी । और वेनेयिक ४ तिनके भी क्रमसे १८०१८४६७ और ३२ भद हैं यह सर्व ३६३ पाखण्ड ग्रहीत मिथ्यात्व हैं । और जो मिथ्यात्व अनादि काल से जीव को लगा हुवा है वह अग्रहीत है णमुयइ पयडि अभव्यो मुट्ठवि आयण्णिऊण जिणधम्म । गुणदुदंविपिवंता णपण्णया णिव्विसा होन्ति ॥ १३८ ॥ न मुञ्चति प्रकृतिमभव्यः सुष्टुअपि आकर्ण्य जिनधर्मम् । गुडदुग्धमपि पिवन्तः न पन्नगा निर्विषा मपन्ति ।।
SR No.010453
Book TitleShat Pahuda Grantha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Siddhant Pracharak Mandali Devvand
PublisherJain Siddhant Pracharak Mandali Devvand
Publication Year
Total Pages149
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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