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________________ ( ९५ ) ध्याय धयं शुक्लम् आत रौद्रं च ध्यानं मुक्त्वा । आतेरौद्रे ध्याते अनेन जीवेन चिरकालम् ।। अर्थ-भो साधा ? तुम आर्त और रौद्र ध्यान को छोड़ कर धर्म और शुक्ल ध्यान को ध्यावो क्योंकि इस जीवने अनादि काल स आत और रौद्र ही ध्यान किये हैं। जेकेवि दव्वमवणा इंदिय सुह आउला पछिंदति । छिदंति भावसमणा झाण कुठारहिं भवरुक्ख ॥ १२२॥ ये केपि द्रव्यश्रमणाः इन्द्रियसुखाकुलानछिन्दन्ति । छिन्दन्ति भावश्रमणाः ध्यान कुठारेण भववृक्षम् ॥ अर्थ-जो इन्द्रिय सुख की अभिलाषा से आकुलित हुवे द्रव्य मुनि हैं वह संसार रूपी वृक्ष को नहीं छदते हैं और जो भावलिडी मुनि है वह धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान रूपी कुठार से संसार रूपी वृक्ष को छेदते हैं जह दीवो गब्धहरे मारुयवाहाविवज्जओ जलइ । तह रायाणिल रहिओ झाणपईवो पवज्जलई ॥ १२३ ॥ यथा दीपः गर्भग्रहे मारुतबाधा विवर्जितो ज्वलति । तथा गगानिलरहितः ध्यानपदीपः प्रज्वलति ।। अर्थ-जैसे गर्भ ग्रह अर्थात् भीतर के कोठे में रक्खा हुवा दीपक पवन की वाधा से वाधित नहीं होता हुवा प्रकाश करता है तेसही मुनि के अन्तरङ्ग में जलता हुवा ध्यान दीपक राग रूपी पवन से रहित हुवा प्रकाशित होता है । भावार्थ । जैस दीपक को पवन बुझा देती है तैसेही ध्यान को राग भाव नष्ट कर देते हैं । इससे ध्यान के वाञ्छकों को राग भाव न करना चाहिये। झायहि पंचवि गुरवे मंगल चउ सरण लोय परिपरिए । णर सुरखेयर महिए आराहण णायगे वीरे ॥ १२४ ।। ध्याय पञ्चापिगुरून् मङ्गल चतुःशरण लोकपरिवारितान् । नरसुरखेचरमहितान् आराधनानायकान् वीरान् ।।
SR No.010453
Book TitleShat Pahuda Grantha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Siddhant Pracharak Mandali Devvand
PublisherJain Siddhant Pracharak Mandali Devvand
Publication Year
Total Pages149
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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