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________________ राजै.शा. याद्वादमं. ॥३८॥ करते हो, सो सौगन खाकर विश्वास कराने योग्य है अर्थात् प्रत्यक्षसे समवाय सिद्ध नहीं होता है, तो भी तुम हठसे उसको सिद्ध करते हो, इस कारण हम समवायको नहीं मानते हैं। किञ्चायं तेन वादिना एको नित्यः सर्वव्यापकोऽमूर्त्तश्च परिकल्प्यते । ततो यथा घटाश्रिताः पाकजरूपादयो धर्माः समवायसम्बन्धेन समवेतास्तथा किं न पटेऽपि । तस्यैकत्वनित्यत्वव्यापकत्वैः सर्वत्र तुल्यत्वात् । यथाकाश एको नित्यो व्यापकः अमूर्तश्च सन् सर्वैः सम्बन्धिभिर्युगपदविशेषेण संवध्यते तथा किं नायमपीति । विन-2 श्यदेकवस्तुसमवायाऽभावे च समस्तवस्तुसमवायाऽभावः प्रसज्यते । तत्तदवच्छेदकभेदान्नायं दोष इतिचेदेवमनित्यत्वापत्तिः । प्रतिवस्तुस्वभावभेदादिति । । और भी विशेष यह है कि, उन वैशेषिकोंने यह समवाय एक, नित्य, सर्वव्यापक तथा अमूर्त माना है, इस कारण जैसे घटमें रहनेवाले पाकज [ घटको अग्निमें पकानेसे उत्पन्न होनेवाले ) रूप आदिक धर्म समवायसवधसे घटमें मिले है, उसीप्रकार पटमें भी धू क्यों नहीं मिले । क्योंकि वह समवाय एक, नित्य और व्यापक होनेसे सब पदार्थों में समान खरूपका धारक है। भावार्थTo जैसे-आकाश जो है, वह एक, नित्य, व्यापक और अमूर्त है, इसकारण सब संबंधियोंके साथ एक ही समयमें समानरूपतासे 8 सबध रखता है, उसीप्रकार यह समवाय भी जैसे पाकजरूपका घटके साथ संबंध कराता है, वैसे पटके साथ भी संबंध क्यों नहीं 1 कराता है । और नष्ट होते हुए किसी एक वस्तुमें समवायका नाश होनेपर समस्त पदार्थोंमें समवायके अभाव होनेका भी प्रसग . ॐ होता है. अर्थात् सर्वव्यापक और एक होनेसे समवाय सर्वत्र समान है, इस कारण जब एक पदार्थमें समवायका नाग होवेगा, तब सब पदार्थोंमें समवायका नाश होगा । और यह तुमको इष्ट नहीं है । यदि उस उस अवच्छेदक (भेद करने वाले) के भेदसे यह दोष नहीं है अर्थात् जो घटत्वावच्छेदक समवाय है, वह घटमें रहता है, और जो पटत्वावच्छेदक समवाय है, वह पटमें रहता है, इसकारण जब घटत्वावच्छेदक समवायका नाश होता है तव पटत्वाच्छेदक समवायका नाश नहीं होता है । ऐसा कहो तो प्रत्येक वस्तुके साथ खभावका भेद होनेसे समवायके अनित्यता प्राप्त हो जावेगी अर्थात् घटके साथ अन्यखभावसे और पटके साथ अन्यखभावसे रहनेके कारण समवाय नित्य न रहेगा। ke अथ कथं समवायस्य न ज्ञाने प्रतिभानम् । यतस्तस्येहेतिप्रत्ययः सावधानं साधनम् । इहप्रत्ययश्चाऽनुभवसिद्ध । ३८॥
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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