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________________ सादा रा.जै.शा. ॥३४॥ होता है कि, तुम्हारा ईश्वर स्वतंत्र और करुणावान नहीं है। यदि कहो कि, ईश्वर जीवोंके अन्य (पहले) जन्मों में उपार्जन किये हुए उन २ शुभ तथा अशुभ कर्मोंसे प्रेरित होकर ऐसा करता है अर्थात् पूर्वजन्ममें जिस जीवने जैसा शुभ-अशुभ कर्म बाधा है, उस कर्मके अनुसार ही उस जीवको फल देनेके लिये ईश्वरने सुख-दुःख आदिरूप जगतको रचा है, ऐसा कहो तो तुमने ईश्वरके . स्वाधीनपनेके अर्थ जलांजली दी, अर्थात् ऐसा माननेसे तुम्हारा ईश्वर खाधीन न रहा, किन्तु कौके आधीन हो गया । और जब तीन ॐ लोककी विचित्रता कर्मोंसे उत्पन्न हुई, तब ईश्वर है कारण जिसमें ऐसी जो जगतकी रचनाकी कल्पना करना है, उसका एक कष्ट ही फल RY होनेसे विचारको धारण करनेवाले तुमने हमारे ही मतको स्वीकार किया। और हमारे मतको स्वीकार करने पर यह “घट्टकुटीप्रभात प ( जगात में प्रातःकाल )" नामक न्यायकी प्राप्ति हुई । भावार्थ-जैसे कोई मनुप्य महसूली सामानका महसूल न देनेके विचारसे जिस रास्तेमें महसूल देनेका मुकाम है, उसको छोडकर किसी दूसरे रास्तेसे शहरके भीतर जानेके लिये सपूर्ण रात्रिमें इधर / a परिभ्रमण करे, और फिर फिराकर प्रातःकाल उस महसूल देने के स्थानमें हीजा पहुचे-उसका जैसे सब रात्रिका परिश्रम करना वृथा हो । * जाता है, इसी प्रकार ईश्वरको जगतके कर्ता माननेके लिये तुमने बहुत कुछ उपाय किये, परन्तु अन्तमें जब कर्मोंसे ही जगतकी विचित्रता सिद्ध हो गई तव ईश्वरको जगतका कर्ता माननेमें केवल कष्ट ही कष्ट समझकर तुमने भी हम जैनियोंका जो " ईश्वर 5 - जगतका कर्त्ता नहीं है" यह मत है, इसीको मान लिया । और भी विशेष यह हैकि, यदि ईश्वर जीवोंके पुण्य तथा पापकी अपेक्षा y करके इस जगतको रचता है, तो यह सिद्ध हुआ कि, ईश्वर जिसकी अपेक्षा करता है उसको नहीं करता है। क्योंकि कुंभकार दंड Hd आदिको नहीं करता है । भावार्थ-जैसे कुभकार घट आदि बनानेके अर्थ दंड आदिकी अपेक्षा रखता है, अतः उनको बना। नहीं सकता, इसी प्रकार ईश्वर जगतके बनानेमें जीवोके धर्म-अधर्मकी अपेक्षा (जरूरत ) रखता है. इस कारण उनके बनाने में 10 असमर्थ है । इस प्रकार यदि कर्मोकी अपेक्षा रखनेवाला ईश्वर जगतका कारण होवे अर्थात् जगतरूपकार्यका कर्ता होवे, तो कर्ममें ईश्वरपना सिद्ध होगा और ईश्वर जो है सो अनीश्वर ( असमर्थ ) हो जावेगा। ॥३४॥ तथा नित्यत्वमपि तस्य स्वगृह एव प्रणिगद्यमानं हृद्यम् । स खलु नित्यत्वेनैकरूपः सन् त्रिभुवनसर्गस्वभावोऽतVत्स्वभावो वा । प्रथमविधायां जगन्निर्माणात्कदाचिदपि नोपरमेत । तदुपरमे तत्स्वभावत्वहानिः। एवं च सर्गक्रि
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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