SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 62
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्थादादम. कहनेवाले वह मूर्ख है, वह महापापी है, वह दरिद्री है, इत्यादि इसी प्रकार प्रत्येक विशेषणके साथ तत्शब्दको व्यवहारमै लाते KG है। और त्वं' इस एकवचनके धारक युप्मत्शब्दका प्रयोग करनेसे आचार्य परमेश्वर श्रीजिनेन्द्रके परमदयालुताके कारण निज ॥२६॥ और पर पक्षकी भेदभावनाकी अपेक्षाके विना अन्य उपदेशकोंमे न होनेवाला ऐसा जो अद्वितीय हितोपदेशकपना है, उसको ध्वनित करते है। भावार्थ-स्तुतिमें युप्मत् शब्दका एकवचन देकर आचार्यने यह दर्शाया है कि, जैसे अन्य उपदेशक पक्षपाती होकर अपने मतवालोंको तो उपदेश देते है, और अन्य मतवालोंको नहीं देते है । उसप्रकार श्रीजिनेन्द्र पक्षपाती नहीं है, किंतु परमकरुणाबुद्धिसे सभीको समान हितोपदेश देनेसे अद्वितीय उपदेशक है। अतोऽत्रायमाशयः। यद्यपि भगवानविशेषेण सकलजगज्जन्तुजातहितावहां सर्वेभ्य एव देशनावाचमाचष्टे । तथापि सैव केषांचिन्निचितनिकाचितपापकर्मकलुपितात्मनां रुचिरूपतया न परिणमते । अपुनर्बन्धकादिव्यतिरिक्तत्वेनायोग्यत्वात् । तथा च कादम्बर्या बाणोऽपि बभाण- अपगतमले हि मनसि स्फटिकमणाविव रजनिकरगभस्तयो विशन्ति सुखमुपदेशगणाः । गुरुवचनममलमपि सलिलमिव महदुपजनयति श्रवणस्थितं शूल मभव्यस्य” इति । अतो वस्तुवृत्त्या न तेपां भगवाननुशासक इति । । इस कारण यहां पर यह भाव है कि, यद्यपि भगवान् अविशेषसे अर्थात् समानरूपसे सभीके लिये सपूर्ण जगत्के जीवोंका भला करनेवाले उपदेशवचनको कहते है। तथापि वही उपदेशरूपवचन पूर्वकालमें उपार्जन कियेहुए निकाचित-पापकर्मोंसे मलीन है आत्मा जिनका ऐसे कितने ही जीवोंके रुचिरूपतासे नहीं परिणमता है अर्थात् कितने ही पापीजीवोंको अच्छा नहीं N| लगता है । क्योंकि, वे पापीजीव अपुनर्बन्धक [ जो तीव्रभावोसे पापको नहीं करता है, वह अपुनर्बधक कहलाता है और इसकी मुक्ति पुद्गल परावर्त्तनमें ही हो जाती है ] आदि जीवोंसे भिन्न होनेके कारण अयोग्य है अर्थात् उपदेशके पात्र नहीं है । सो ही कादम्बरीमें बाणकवीने भी कहा है कि, जैसे निर्मल स्फटिकमणि ( विल्लोर ) में चंद्रमाकी किरणें सुखसे प्रवेश करती हैं, उसी प्रकार मलरहित (खच्छ ) मनमें उपदेशोके समूह सुखसे प्रवेश करते है । और जैसे कर्ण ( कानों ) में स्थित हुआ निर्मलजल शूलरोगको उत्पन्न करता है, उसीप्रकार कर्गों में स्थित हुआ निर्मल गुरूका वचन भी अभव्यजीवके शूल नामक रोगको उत्पन्न कर१ पाप न तीवभावारकरोतीत्यादिलक्षणोऽपुनबंधकः । अस्य च पुदलपरावर्तमध्य एव मुक्तिः ॥ ॥२६॥
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy