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________________ व्याख्या । जगतः प्रत्यक्षादिप्रमाणोपलक्ष्यमाणचराचररूपस्य विश्वत्रयस्य कश्चिदनिर्वचनीयस्वरूपः पुरुष-IN विशेषः कर्ता स्रष्टा अस्ति विद्यते । ते हि इत्थं प्रमाणयन्ति-उर्वीपर्वततर्वादिकं सर्वं बुद्धिमत्कर्तृकं कार्यत्वात्। यद्यत्कार्यंतत्तत्सर्व बुद्धिमत्कर्तृकं यथा घटस्तथा चेदं तस्मात्तथा । व्यतिरेके व्योमादि । यश्च बुद्धिमांस्तत्की स भगवानीश्वर एवेति । | व्याख्यार्थः-"जगत" प्रत्यक्ष आदि प्रमाणोंद्वारा जाननेमें आते हुए जो ये चर (जंगम) और अचर (स्थावर) रूप तीन जगतके पदार्थ हैं, इनका "कश्चित्" वचनोंके अगोचर खरूपका धारक कोई पुरुषविशेष "कर्ता" बनानेवाला "अस्ति" है । वे वैशेषिक इस ऊपर कहे हुए अपने मतको इस निम्नलिखित प्रकारसे प्रमाण कराते है अर्थात् सिद्ध करते हैं कि, ये पृथिवी, पर्वत और वृक्ष आदि समस्त पदार्थ बुद्धिमानके रचे हुए हैं । क्योंकि, ये सब कार्य है । जो जो कार्य है, वह वह सब बुद्धिमानका || रचा हुआ है । जैसे कि, घट कार्य है और वह बुद्धिमान् कुंभकारसे बनाया हुआ है । उसी प्रकार अर्थात् घटके समान ही ये प्रथिवी पर्वत आदिक भी कार्य है, इसलिये किसी बद्धिमानके द्वारा बनाये हए है। व्यतिरेक दृष्टान्तमें व्योम आदि हैं अर्थात आकाश आदि कार्य नहीं है, इसलिये किसी बुद्धिमानके बनाये हुए भी नहीं है। और जो कोई बुद्धिमान् इन पृथिवी आदि कार्योंका कर्ता है, वह भगवान् ईश्वर ही है । | न चायमसिद्धो हेतुर्यतो भूभूधरादेः स्वस्वकारणकलापजन्यतया अवयवितया वा कार्यत्वं सर्ववादिनां प्रतीतमेव । नाप्यनैकान्तिको विरुद्धो वा। विपक्षादत्यन्तव्यावृत्तत्वात्।नापि कालात्ययापदिष्टः । प्रत्यक्षानुमानागमाबा|धितधर्माधर्म्यनन्तरप्रतिपादितत्वात् । नापि प्रकरणसमः । तत्प्रतिपन्थिधर्मोपपादनसमर्थप्रत्यनुमानाभावात् । | . और हमने पृथिवी आदिको ईश्वरके बनाये हुए सिद्ध करनेके लिये जो यह कार्यत्वरूप हेतु दिया है, वह असिद्ध नहीं है । IN क्योंकि, अपने २ कारणोंके समूहसे उत्पन्न होनेसे अथवा अवयवीपनेसे पृथिवी, पर्वत आदिके कार्यत्व सभी वादियोंने ) all माना है। और विपक्षसे अत्यंत भिन्न है, इस कारण यह कार्यत्वहेतु अनेकांतिक ( व्यभिचारी )- अथवा विरुद्ध भी नहीं है । IN||तथा यह कार्यत्वहेतु कालात्ययापदिष्ट ( बाधित ) भी नहीं है । क्योंकि, प्रल नाधित अर्थात् सिद्ध ऐसे जो धर्म और धर्मी हैं, उनके पश्चात् कहा गया है अर्थात् पहले प्रमाणसिद्ध धर्म तथा धर्मीका कथन करके |
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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