SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 442
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ टी. प्रश. स्साद्वादमश्रीहेमचंद्राचार्यकी वाणीका गंभीर अर्थ देखनेकेलिये जो मेरी दृष्टि समर्थ हुई तथा बड़े बड़े सिद्धान्तोंका आदरपूर्वक ग्रहण करनेमें उपस्थित हुए प्रबल विघ्नोंका नाश हुआ वह सर्व गुरुके चरणकमलोंकी धूलिरूप सिद्ध अंजनका ही माहात्म्य है ।२। जुदे ॥२१८॥ जुदे शास्त्ररूपी वृक्षोंमें लगे हुए प्रमेयरूपी पुष्पोंके गुच्छोंसे बनाई हुई मालाके समान अंतिमजिनस्तुतिकी इस टीकाको देखकर विशुद्धमति सज्जन अपने हृदयमें धारण करै । ३। प्रमाण अथवा सिद्धान्तके विरुद्ध जो कुछ मैने यहांपर अल्पमति होनेके कारण कहा हो उसको सरलचित्त सज्जन वैरभाव न रखकर प्रसन्नतापूर्वक शोधलें ।४। तीनों लोकमें विस्तरी हुई बुद्धि देखकर जिसके विषयमें लोग यह अनुमान करते है कि पृथ्वीके ऊपर यह ( हेमचंद्राचार्य ) देवताओंका गुरु बृहस्पति ही 1 है । और जिसके निकले हुए वचनोंको यह सुधा है ऐसा प्रशसते हुए ये विद्वान् संवादसे पुष्ट हुई उस वाणीकी अत्यंत ख्याति । IN करते है । ५। तथा नागेन्द्र गच्छरूपी विष्णुके गलेको शोभित करनेवाले कौस्तुभ मणिके समान ऐसे लोकपूज्य श्रीउदयप्रभ सूरि जयवंते प्रवर्ते । ६ । आकाशरूपी इनके पदको सूर्यके समान प्रकाशित करनेवाले श्रीमल्लिपेण सूरिने यह वृत्ति शकाब्द १२१४ के दिवालीके दिन पूर्ण की ।श्रीजिनप्रभसूरिकी सहायतासे उत्पन्न हुआ है सुगंध जिसमें ऐसी यह स्याद्वादमंजरीMa नामक वृत्ति सत्पुरुषोंके कौँको मंजरीके समान शोभित करै।८। विजय करनेसे जिनेन्द्रकी तुलना रखनेवाले श्रीहेमचंद्र प्रभुकी 9 मैने उनकी बनाई हुई स्तुतिकी वृत्ति बनानेके बहानेसे भक्ति की है इसलिये अपनी वाणीके गुणदोषोंका निर्णय करानेके लिये मै Ko सज्जनोंसे प्रार्थना नहीं करता हू । क्योंकि, बहुमति होना ही वाणीका अकृत्रिम भूषण है और वह भूषण इसमें भले प्रकार | विद्यमान है। ॥२१८॥ इति श्रीटीकाकारप्रशस्ति ।
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy