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________________ दिवचनः । अव्यभिचारिवागित्यर्थः । यथा च पारमेश्वरी वागू न विसंवादमासादयति तथा तत्र तत्र स्याद्वाद - साधने दर्शितम् । I ऐसे पतित जगत्का उद्धार करनेको केवल आप ही समर्थ हैं, अन्य कोई भी समर्थ नही है ऐसा निश्चय हो चुका है । क्यो आप ही इस कार्यको पूरा करने के लिये समर्थ है, किंतु अन्य कोई नही है इस शंकाका उत्तर विशेषणद्वारा देते है कि आपके बचन विसंवाद रहित सच्चे है । अर्थात् - आपके ही वचन विसवादरहित है इसलिये आप ही जगत्‌का उद्धार करसकते है । कष, छेद, ताप इन तीन प्रकारोंकी परीक्षासे आपके वचन विशुद्ध ठहरचुके है इस लिये फलकी प्राप्तिके विषयमें आपके वचनोमें कुछ विरोध नही है । इसीलिये इन वचनोको अविसवादी कहा है । इस प्रकार जिसका वचन या उपदेश अविसंवादी हो वह अविसंवादिवचन कहाता है । अर्थात्- आपके वचन ऐसे है कि जिनमें किसी प्रकार भी असत्यता नही ठहरसकै । आपके वचनोंमें जिस प्रकार असत्यता नहीं आती उस प्रकारका निरूपण स्थान स्थानपर स्याद्वादके बलसे करते आये है । कषादिस्वरूपं चेत्थमाचक्षते प्रावचनिकाः “पाणवहाईआणं पावडाणाण जो उ पडिसेहो । झाणऽज्झयणाईणं जो य विही एस धम्मको । १ । वज्झाणुडाणेणं जेण ण वाहिज्जए तयं णियमा । संभवइ य परिसुद्धं सो पुण धम्मम्हि छेउत्ति । २ । जीवाइभावबाओ बंधाइपसाहगो इहं तावो । एएहिं परिसुद्धो धम्मो धम्मत्तणमुवेइ । ३ ।” कष छेद तापका स्वरूप धर्मशास्त्र के ज्ञाताओंने इस प्रकार कहा है । - " प्राणवधआदिक पापस्थानोंका जो निषेध तथा ध्यान | अध्ययन आदिक कर्मोंकी जो आज्ञा वह धर्मकष है । १ । जिस बाह्य क्रियासे धर्म के विषय में बाधा न पहुचसकै अर्थात् - मलिनता न आसकै किंतु निर्मलता वढती रहै उसको धर्मके विषयमें छेद कहते है । २ । जिससे बंध छूट जाय या नवीन बंध न हो ऐसा | जीवादि पदार्थोंका जिसमें कथन हो वह धर्म विषयमें ताप समझना चाहिये । ३ ।” तीर्थान्तरीयाप्ता हि न प्रकृतपरीक्षात्रयविशुद्धवादिन इति ते महामोहान्धतमसे एव जगत्पातयितुं समर्थाः, १ संस्कृतच्छाया - प्राणवधादीना पापस्थानानां यस्तु प्रतिषेध. । ध्यानअध्ययनादीनां यश्च विधिः एप धर्मकपः ॥ १ ॥ बाह्यानुष्ठानेन येन न बाध्यते तन्नियमात् । संभवति च परिशुद्धः स पुनः धर्मे छेद इति ॥ २ ॥ जीवादिभाववाद बन्धाद्यऽपसाधक इह तापः । एभिः परिशुद्ध. धर्मः धर्मत्वमुपैति ॥ ३ ॥
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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