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________________ नजङ्घालतया जाविकतया वेगवत्तया समुद्रं लङ्घम किल। समुद्रमिवातिक्रमामः। तथा वहेम धारयेम। चन्द्रद्युतीनां चन्द्रमरीचीनां पानं चन्द्रद्युतिपानम्। तत्र तृष्णा तर्षोऽभिलाष इति यावत् चन्द्रद्युतिपानतृष्णा। ताम् । उभयत्रापि सम्भावने सप्तमी । यथा कश्चिञ्चरणचङ्कमणवेगवत्तया यानपात्राद्यन्तरेणापि समुद्र लवितुमीहते । यथा च कश्चिः। चन्द्रमरीचीरमृतमयीः श्रुत्वा चुलुकादिना पातुमिच्छति । न चैतद्वयमपि शक्यसाधनम् । तथा न्यक्षेण भवदीयवाग्वैभववर्णनाकाक्षाप्यशक्यारम्भप्रवृत्तितुल्या। आस्तां तावत्तावकीनवचनविभवानां सामस्त्येन विवेचनवि धानम् । तद्विषयाकाक्षापि महत्साहसमिति भावार्थः। AMI यदि आपके वचनवैभवका अच्छीतरह विवेचन करना हम चाहै तो किस प्रकार असंभव है सो 'लड्डेम' इत्यादि शब्दोंद्वारा दिखाते है । इस श्लोकमें 'यदि' अर्थका वाचक 'चेत्' शब्द तो है किंतु जहां यदि शब्द आता है वहां तो या तदा शब्द भी अवश्य आता है परंतु यह तो या तदा शब्द श्लोकमें नहीं है इसलिये ऊपरसे समझलेना चाहिये । 'लड्डेम' इत्यादि शब्दोंका अर्थ कहते है कि तो दौड़कर शीघ्र ही हम समुद्रको तरना चाहते हैं। अर्थात् यह संपूर्ण गुणोंका जो वर्णन करना है सो मानों, समुद्र तरना है। और भी मानों, चंद्रद्युति जो चंद्रकिरणे है उनके पीनेकी तृषा अर्थात् अभिलाष करना है। वहेरे I'लंघेम' इन दोनों धातुओंके शब्दोमें जो लिड् लकार हुआ है वह संभावना अर्थमें हुआ है। लिङ् लकारको ही कुछ व्याकरणोंमें || सप्तमी कहते है। जिस प्रकार कोई मनुष्य जहाजके बिना पैदल दौड़कर ही समुद्रको लांघनेकी वांछा करता हो या कोई मनुष्य चन्द्रकिरणोंको अमृतमयी सुनकर चुरल आदिकसे पीना चाहता हो परंतु ये दोनों ही कार्योका सिद्ध होना असंभव है उसी प्रकार आपके वचनवैभवके पूरी तौरसे वर्ण करनेकी आकांक्षाभी ठीक ऐसी ही है जैसा कि अशक्य कार्यके प्रारंभ करनेका उत्साह होता है । भावार्थ-आपके वचनरूप वैभवोंका पूर्णतया वर्णन करना तो दूर ही रहा किंतु उसकी आकांक्षा करना भी बड़ा साहस है। अथवा लघि शोषणे इति धातोर्लक्षेम शोषयेम समुद्रं जङ्घालतया अतिरंहसा । अतिक्रमणार्थलऽस्तु प्रयोगे । दुर्लभं परस्मैपदमनित्यं वा आत्मनेपदमिति । अत्र चौद्धत्यपरिहारेऽधिकृतेऽपि यदाशास्महे इत्यात्मनि बहुवचनमाचार्यः प्रयुक्तवास्तदिति सूचयति-यद्विद्यन्ते जगति मादृशा मन्दमेधसो भूयांसः स्तोतारः। इति बहुवचनमात्रेण न खल्वहङ्कारः स्तोतरि प्रभौ शङ्कनीयः। प्रत्युत निरभिमानताप्रासादोपरि पताकारोप एवाऽवधारणीयः। इति काव्यार्थः । एष्वेकत्रिंशतिवृत्तेषूपजातिच्छन्दः।
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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