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________________ मत पक्षपाती कहा जाता है। अर्थात् जो एक पक्षके दुराग्रहको नष्ट कर देता हो अर्थात् हठको तिरस्कार दृष्टिसे देखता हो वह | पक्षपाती कहा जाता है। इन दोनों व्याख्यानोमें अंतर यह है कि इस व्याख्यामें 'मत्सरी-अर्थात् मत्सरभाववाला' इस पदको विधेय किया है और प्रथम व्याख्या में 'पक्षपाती' शब्द विधेयरूप था। इन दोनो व्याख्यानोंमें कोनसा सरल है तथा कोनसा कठिन है ऐसा विचार बुद्धिमानोंको खयं करलेना चाहिये । इस प्रकार इस काव्यका अर्थ पूर्ण हुआ। | इत्थंकारं कतिपयपदार्थविवेचनद्वारेण स्वामिनो यथार्थवादाख्यं गुणमभिष्टुत्य समग्रवचनातिशयव्यावर्णने स्वस्याऽसामर्थ्य दृष्टान्तपूर्वकमुपदर्शयन्नौद्ध त्यपरिहाराय भजयन्तरतिरोहितं स्वाभिधानं च प्रकाशयन्निगमनमाह । इस प्रकार अर्हन् भगवान्कर कहे हुए पदार्थोंमें से कुछ पदार्थोंकी यथार्थताका विवेचन करते हुए आचार्य, भगवान्का यथार्थ वक्तापना जो गुण है उसकी स्तुति करते हैं और भगवानके संपूर्ण वचनोंका अतिशय कहनेमें अपनी असमर्थता दृष्टांतपूर्वक दिखाते || हुए अपनेमें उद्धतताका अभाव दिखानेके लिये अपने अभिप्रायको व्यंगरूपसे छिपाकर प्रकाशित करते हुए उपसंहार करते है। वाग्वैभवं ते निखिलं विवेक्तुमाशास्महे चेन्महनीयमुख्य। लङ्घम जङ्घालतया समुद्रं वहेम चन्द्रद्युतिपानतृष्णाम् ॥ ३१॥ मूलार्थ-हे पूज्यशिरोमणे ! तुमारे वचनोंका संपूर्ण वैभव यदि हम विवेचन करना चाहें तो समझना चाहिये कि दौड़कर ||| क समुद्र तरना चाहते हैं अथवा चन्द्रमाकी चांदनी पीनेकी तृष्णा करते है। भावार्थ-यह कार्य उसी प्रकार असंभव है कि जिस || प्रकार जघाओंसे समुद्रका तरना या चुरलूसे चन्द्रकान्तिका पीना । व्याख्या-विभव एव वैभवम् । प्रज्ञादित्वात्स्वार्थेऽण् । विभोर्भावः कर्म चेति वा वैभवम् । वाचां वैभवं वाग्वैभवं वचनसंपत्प्रकर्षम् । विभोर्भाव इति पक्षे तु सर्वनयव्यापकत्वं; विभुशब्दस्य व्यापकपर्यायरूपतया रूढत्वात् । ते तव संवन्धिनं निखिलं कृत्स्नं विवेक्तुं विचारयितुं चेद्यदि वयमाशास्महे इच्छामः-। व्याख्यार्थ—'प्रज्ञादि' सूत्रद्वारा स्वार्थवाची अण् प्रत्यय होनेपर विभव शब्दका ही वैभव होजाता है। अथवा विभुका अर्थात्
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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