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________________ स्थाद्वादम. इस प्रकारसे जैसा इन अन्य दर्शनोंमें परस्पर पक्षप्रतिपक्षके दुराग्रहसे द्वेष होरहा है तैसा तुझारे समयमें अर्थात् दर्शनमें नही ) है। जिसके जाननेसे शब्दका अर्थ ठीक ठीक जानाजाय उसको समय कहते है। यहांपर 'सम्' पूर्वक 'इ' धातुका उपर्युक्त अर्थकी विवक्षामें 'पुन्नाम्नि घे.' इस व्याकरणके सूत्रकर समय शब्द बना है। ऐसा विग्रह करनेपर समयका अर्थ संकेत होता है। अथवा सम्यक् अर्थात् जैसेके तैसे जीव अजीवादि पदार्थ जिसके द्वारा जाने जासकते है उसको समय कहते है। ऐसी ) विवक्षा होनेपर समय शब्दका अर्थ सिद्धात होता है । अथवा जीवादि पदार्थ जिसमें यथावत् कहे हों अर्थात् अपने अपने खरूपमें स्थिति पाते हुए जिसमें वर्णन किये हों उसको समय कहते है । ऐसा अर्थ लेनेपर समय शब्दका अर्थ आगम है। न पक्षपाती नैकपक्षानुरागी । पक्षपातित्वस्य हि कारणं मत्सरित्वं परप्रवादेपूक्तम् । त्वत्समयस्य च मत्सरित्वाभावान्न पक्षपातित्वम् । पक्षपातित्वं हि मत्सरित्वेन व्याप्तम् ।व्यापकं च निवर्तमानं व्याप्यमपि निवर्तयतीति मत्सyरित्वे निवर्तमाने पक्षपातित्वमपि निवर्त्तते इति भावः। 'तव समयः' इति वाच्यवाचकभावलक्षणे सम्बन्धे षष्ठी। ___ यह आपका समय पक्षपाती नहीं है अर्थात् किसी एक पक्षमें अनुराग नहीं करता है । पक्षपाती होनेका कारण मत्सर भावका होना है। वह मत्सरभाव अन्य वादियोंमें ही है। आपके समयमें मत्सरभाव न होनेसे पक्षपात भी नहीं है। मत्सरभाव होनेसे ही Ke पक्षपात होता है । इसीको न्याय शैलीसे ऐसा कहसकते है कि मत्सरभाव व्यापक है और पक्षपात व्याप्य है। जहांपर व्यापक * अर्थात् बहुदेशव्यापी धर्म नहीं रहता है, वहांपरसे उसी व्यापकके अन्तर्गत रहनेवाला व्याप्य धर्म भी अवश्य निवृत्त होजाता है। * इसलिये मत्सरभाव छूट जानेपर पक्षपात तो अवश्य ही निवृत्त होजाना चाहिये । संस्कृतमें जितने शब्द वोलेजाते है वे किसी न किसी विभक्तीको लगाकर ही बोले जाते है ऐसा नियम है। 'तव समयः' अर्थात् तुहमारा समय यहांपर जो 'तव' शब्द बोलागया है वह भी षष्ठी विभक्ती जोडनेसे ही बनता है । षष्ठी विभक्ती किसी न किसीका संबंध होनेपर होती है। यहांपर 'तव' शब्दमें भीवाच्यवाचकरूप संबध होनेसे पष्ठी विभक्ती हुई है। अर्थात् समय तो आपफर कहागया है इसलिये वाच्यरूप है तथा आप उसके वक्ता होनेसे वाचक है । इस प्रकार 'तव' और 'समय' इन दोनों शब्दोंमें वाच्यवाचकभाव संबंध होनेसे तव शब्द षष्ठीविभक्त्यन्त है। सूत्रापेक्षया गणधरकर्तृकत्वेऽपि समयस्यार्थापेक्षया भगवत्कर्तृकत्वाद्वाच्यवाचकभावो न विरुध्यते "अत्थंभासइ २१२॥
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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