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________________ सामान्यानि मन्वानस्तद्देदेषु गजनिमीलिकामवलम्बमानः पुनरपरसंग्रहः । धर्माधर्माकाशकालपुद्गलद्रव्याणामैक्यं द्रव्यत्वाऽभेदादित्यादिर्यथा । तद्रव्यत्वादिकं प्रतिजानानस्तद्विशेषान्निढुवानस्तदाभासः । यथा द्रव्यत्वमेव तत्त्वं ततोऽर्थान्तरभूतानां द्रव्याणामनुपलब्धेः । all केवल सामान्य धर्मका ग्रहण करानेवाला संग्रह नय है । इसके दो भेद है; एक महासंग्रह दूसरा अवान्तर संग्रह । संपूर्ण || विशेष धर्मोंपर उदासीन होकर लक्ष्य न देता हुआ केवल सत्रूप शुद्ध द्रव्यको जो सच्चा मानता हो उस नयको महासंग्रह कहते है। जैसे सामान्य सत्त्व धर्मकी अपेक्षा संपूर्ण विश्व एक है । सत्तासामान्यको केवल स्वीकार करनेवाला तथा बाकीके अन्य धर्मोका निषेध करनेवाला जो एक सत्तासामान्यरूप विचार है वह महासंग्रहाभास है । जैसे सत्ता ही केवल सच्चा तत्त्व या पदार्थ है। क्योंकि; सत्ताके सिवाय जो विशेष धर्म मानेजाय उन धर्मोंका कुछ भी अवलोकन नही होता है। द्रव्यत्वादि अवान्तर सामान्य धर्मोको मनानेवाला तथा उन सामान्य धर्म के साथ रहनेवाले विशेष विशेप धर्मों की तरफ हस्तिकी दृष्टिक समान नहीं देखनेवाला अवान्तरसंग्रह या अपरसंग्रह कहाता है। जैसे द्रव्यत्व धर्मकी अपेक्षा धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गलादि सभी द्रव्य एक है। केवल द्रव्यत्वादि सामान्य धर्मोको स्वीकार करता हुआ जो उन सामान्य धर्मोंके साथके विशेप विशेप धर्मोको निषेधता हो बह अपरसंग्रहाभास है । जैसे द्रव्यत्व ही सच्चा तत्त्व है । क्योंकि; द्रव्यत्वसे भिन्न द्रव्यका कभी भी प्रत्यक्ष नहीं होता। __ संग्रहेण गोचरीकृतानामर्थानां विधिपूर्वमवहरणं येनाऽभिसन्धिना क्रियते स व्यवहारः । यथा यत्सत्तद्रव्यं पर्यायो वेत्यादिः । यः पुनरपारमार्थिकं द्रव्यपर्यायप्रविभागमभिप्रेति स व्यवहाराभासः । यथा चार्वाकदर्शनम् । CI संग्रहनयके द्वारा जो एकरूप माने जाते है उनमें जो विचार ऐसा खीकार कराता हो कि व्यवहारके अनुकूल यह जुदा जुदा है उसको व्यवहारनय कहते हैं । जैसे जो संग्रहकी अपेक्षा एक सत्रूप कहा है वह द्रव्य है या पर्याय ? यह नय और भी इसी प्रकारके भेदोंको ठीक मानता है । जो द्रव्यपर्यायादिकोंमें झूठा भेद मानता है वह व्यवहारनय भास समझा जाता है । जैसे चार्वाकका मत । इस प्रकार द्रव्यार्थिक तथा पर्यायार्थिक ऐसे दो भेदोंमेंसे द्रव्यार्थिकके जो तीन भेद किये थे उनका तथा उनसे उलटे मिथ्या नयोंका तो उदाहरणसहित वर्णन हुआ, अब पर्यायार्थिक नयके भेद कहते हैं।
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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