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________________ होनेसे पुण्य पाप उत्पन्न होसकै । ऐसी क्रिया क्यों नही होसकती है इस शंकाका उत्तर अभी दे चुके है । जब पुण्य पाप बांधनेवाली क्रिया ही नहीं होगी तब पुण्य पापका बँधना असंभव ही है। इसीलिये कहा है कि " न पुण्यपापे" । अर्थात् जिस प्रकार सुखदुःखोंका होना असंभव है उसीप्रकार पुण्यपापका होना भी असंभव है । पुण्य तो उसको कहते है जो दानादि शुभ कार्य करनेसे शुभ कर्म बंधता | हिंसादि अशुभ कार्योंसे बंधनेवाले अशुभ कर्मको पाप कहते है । इसीप्रकार जीवका बंधना छूटना भी नहीं होसकता है । जिस प्रकार अझिसे तपाने पर लोहेके गोलामें अभि ऐसी प्रविष्ट होजाती है कि गोलेका एक अंश भी बचा नहीं रहता उसीप्रकार जो आत्माके प्रत्येक प्रदेशमें कर्मपुद्गलोंका एक दूसरेको जकड़कर अन्योन्य प्रवेशरूप ऐसा संबन्ध होजाता है जिसके होनेसे कर्म तथा आत्मामें कुछ भी भेदभाव नही रहता, उसीका नाम बंध है । ऐसा बंधन छूटजानेका नाम ही मोक्ष है। बंघ तथा मोक्ष ये दोनो ही सर्वथा आत्माको नित्य माननेसे नही होसकते है । क्योंकि; बंधन तो एक प्रकारके संबंधको कहते है । सो संबंध तभी कहाजाता है जब कोई दो वस्तु पहिले तो जुदी जुदी हों और पीछे मिलगयी हों । इनमें से जबतक | दोनो वस्तु एकत्र नही मिली है तबतक तो एक अपूर्व ही अवस्था है और जब संयोग होजाता है तब एक दूसरी ही अवस्था हो | जाती है । पूर्वापर समयवर्ती ये दोंनो अवस्थायें सर्वथा भिन्न भिन्न हैं । सदा अवस्थाओंमें परिवर्तन होना सर्वथा नित्यताकी अपेक्षा कुछ उलटा ही है । अर्थात् परिवर्तन तभी होसकता है जब वस्तुमें किसी प्रकार अनित्यता मानली जाय । कथं चैकरूपत्वे सति तस्याकस्मिको वन्धनसंयोगः ? वन्धनसंयोगाच्च प्राक्किं नायं मुक्तोऽभवत् ? किं च तेन वन्धनेनासौ विकृतिमनुभवति न वा ? अनुभवति चेच्चर्मादिवदनित्यः । नानुभवति चेन्निर्विकारत्वे सता असता वा तेन गगनस्येव न कोप्यस्य विशेषः । इति वन्धवैफल्यान्नित्यमुक्त एव स्यात् । ततश्च विशीर्णा जगति वन्धमोक्षव्यवस्था । तथा च पठन्ति “ वर्षातपाभ्यां किं व्योम्नश्चर्मण्यस्ति तयोः फलम् । चर्मोपमश्चेत्सोऽनित्यः खतुल्यश्चेदसत्फलः " । बन्धाऽनुपपत्तौ मोक्षस्याप्यनुपपत्तिर्वन्धनविच्छेदपर्यायत्वान्मुक्तिशब्दस्येति । और जब वस्तुओं में फेरफार तो है ही नही तो विनाकारण अकस्मात् बंधनका सयोग किस प्रकार होगा ? और बंधनसयोग | जबतक नही हुआ है तभीसे उस जीवकी मुक्ति मानी जाय तो क्या हानि है ? क्योंकि; शुद्ध अवस्थाका ही नाम मुक्ति है । और हम नित्यवादीसे पूछते है कि जब जीव बंधता है तब उस बंधनसे जीवमें कुछ भी विकार होता है अथवा नही ? यदि 1
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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