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________________ रा.जै.शा. भवनीयं "शक्तार्हे कृत्याश्चेति" कृत्यविधानाद्धर्षितुमशक्यं धर्पितुमनह वा जयति सर्वोत्कर्षेण वर्तते । यथा कश्चिमहाराजः पीवरपुण्यपरीपाकः परस्परं विगृह्य स्वयमेव क्षयमुपेयिवत्सु द्विषत्सु अयत्नसिद्धनिष्कण्टकत्वं समृद्ध राज्यमुपभुञ्जानः सर्वोत्कृष्टो भवत्येवं त्वच्छासनमपि । इति काव्यार्थः। अब श्लोकके बाकी रहे आधे हिस्सेका भी अर्थ दिखाते हैं। वह आधा श्लोक "परस्परध्वंसिषु कण्टकेपु जयत्यधृष्यं जिनशासनं ते" यह है । ऐसे पूर्वोक्त प्रकारसे कंटकोंका अर्थात् एकान्तवादी क्षुद्र शत्रुओंका सुन्द उपसुन्द नामक दो राक्षसोंके समान परस्परसे ही नाश होजानेपर, हे जिनेन्द्र ! जिसने स्याद्वादका निरूपण पूर्णतया किया है ऐसा द्वादशांगरूपी आपका शासन अर्थात् उपदेश अजेय है । क्योंकि, जो पराभव करनेकी वांछा करनेवाले शत्रु है उनका उच्छेद स्वयमेव ही होगया है। 'शक्ता कृत्याश्च' है इस सूत्रकर 'क्यप् प्रत्यय होकर सिद्ध होनेसे 'अधृष्य' शब्दका अर्थ ऐसा होता है कि जिसका पराभव नही होसकता है उसको । अधृष्य कहते है । अधृष्य होनेसे ही यह आपका शासन सबोंसे उत्कृष्ट मानाजाता है। जिस प्रकार जिसके पुण्यकर्मका पाक तीव्रतासे होरहा है ऐसा कोई नरपति शत्रुओंके परस्पर लड़कर नष्ट होजानेपर परिश्रमके विना ही निष्कंटक समृद्ध राज्यको भोगता हुआ सर्वोत्कृष्ट होजाता है उसी प्रकार आपका शासन उस नृपतिके समान खयमेव सर्वोत्कृष्ट हो रहा है । इस प्रकार इस काव्यका अर्थ पूर्ण हुआ। अनन्तरकाव्ये नित्यानित्यायेकान्तवादे दोषसामान्यमभिहितम् । इदानी कतिपयतद्विशेपानामग्राहं दर्शयंस्तस्मरूपकाणामसद्भूतोद्भावकतयोद्वत्ततथाविधरिपुजनजनितोपद्रवमिव परित्रातुर्धरित्रीपतेस्त्रिजगत्पतेः पुर भुवनत्रयं प्रत्युपकारकारितामाविष्करोति ।। इस ऊपरके काव्यमें नित्यअनित्य आदिक एकांत पक्षोंके मानने में संभव होते हुए दोप सामान्यपनेसे तो दिखा दिये । Y परंतु यह स्पष्ट नहीं कहा कि वे दोष कोन कोनसे हैं । इसलिये अब उनमेंसे कुछ दोपोंके नाम दिखाते हुए यह भी दिखाते है । कि जिस प्रकार प्रजापर शत्रु जो नानाप्रकारके उपद्रव खड़े करते है उनसे रक्षाकरनेवाले नृपतिका प्रजाके ऊपर महान् उपकार समझा जाता है उसी प्रकार हे भगवन् । जिन नित्य अनित्य आदिक झूठे पक्षोंका कुवादी प्रतिपादन करते है उन कुमासे तीनों जगत्की रक्षा करनेवाले आपका तीनों लोकके प्रति बड़ा उपकार है। ॥१९ ॥
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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