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________________ स्थाद्वादमं. रा.जै.शा ॥१९॥ नित्य पूर्वक्रिया होती कि न एकसाथ । जो प्रयोजनकारी क्रियाका होना है वह तो कूटस्थरूप स्थितिको बदलनेवाला ही है । क्योंकि, जो पदार्थमें क्रियाका धु परिवर्तन होता है वह तबतक नही संभव है जबतक उस पदार्थका खयं परिवर्तन न माना जाय । इसलिये जो प्रयोजनभूत क्रिया बदलेगी वह अपने साथ रहनेवाली सत्ताको अवश्य बदलादेगी। और जब सत्ता बदलेगी तब क्षणिकपना होगा ही। जो पदार्थ सर्वथा सदा नित्य है अर्थात् कूटस्थ है उसके द्वारा प्रयोजनीभूत क्रियाकी उत्पत्ति क्रमसे तो हो नहीं सकती है। क्योंकि, जब पूर्वमें प्रवर्तती हुई क्रियाका नाश होजायगा तमी पहिली क्रिया बदलकर दूसरी क्रिया होसकैगी । जब पदार्थ सर्वथा नित्य है तो उसमें न तो पूर्व क्रियाका नाश ही संभव है और न उत्तरक्रियाकी उत्पत्ति ही संभव है । यदि पूर्वक्रियाका विनाश हुए बिना ही उत्तर क्रियाका प्रादुर्भाव होता हो तो प्रत्येक पदार्थकी पूर्वक्रिया नष्ट ही न होती किंतु चलती ही रहतीं । और यदि पूर्व क्रियाका नाश होकर उत्तर क्रियाकी उत्पत्ति होना मानते है तो पूर्वखभावका नाश होना ही अनित्यपना है इसलिये नित्यपना नहीं रहता है । क्योंकि, जैसाका तैसा न रहनेको ही अनित्यता कहते है। ___ अथ नित्योऽपि क्रमवर्तिनं सहकारिकारणमर्थमुदीक्षमाणस्तावदासीत् । पश्चात् तमासाद्य क्रमेण कार्य कुर्यादिति चेन्न; सहकारिकारणस्य नित्येऽकिंचित्करत्वात्, अकिञ्चित्करस्यापि प्रतीक्षणेऽनवस्थाप्रसङ्गात् । नापि यौगपद्येन नित्योऽर्थोऽर्थक्रियां कुरुते; अध्यक्षविरोधात् । न ह्येककालं सकलाः क्रियाः प्रारभमाणः कश्चिदुपलभ्यते । करोतु वा। तथाप्याद्यक्षणे एव सकलक्रियापरिसमाप्तर्द्वितीयादिक्षणेष्वकुर्वाणस्याऽनित्यता बलादाढौकते; करणाकरणयोरेकस्मिन्विरोधात्' इति। शंका-जिससे कार्य उत्पन्न होनेवाला है वह चाहै नित्य ही है परंतु प्रत्येक उपादानकारण सहकारी कारणों की प्रतीक्षा अवश्य करता है और सहकारी पदार्थ क्रमवर्ती होते है इसलिये सहकारी जब मिलते है तभी उपादान कारण कार्यको जन सकता है, किंतु पहिले नही । इस प्रकार नित्य पदार्थसे भी क्रमपूर्वक कार्यकी उत्पत्ति होना अनुचित नहीं है। उत्तर-यह कहना ठीक नही है। ॐ y क्योंकि जो सर्वथा कूटस्थ है उसमें सहकारी भी कुछ फेरफार नहीं करसकता है। और जो कुछ कर ही नहीं सकता है उसकी सहायताकी भी प्रतीक्षा यदि नित्यपदार्थ कार्य उत्पन्न करनेमें करै तो कहीं ठिकाना ही नही रहै । कदाचित् नित्यवादी कहेगा कि नित्य पदार्थ जो कुछ क्रिया करनी होती है उनको एकसाथ ही करदेता है परंतु यह कहना भी मिथ्या है। क्योंकि, प्रयोजनकारी ॥१९॥
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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