SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 38
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्थाद्वादमं. ॥१४॥ अथ यच्चाक्षुषं तत्सर्व स्वप्रतिभासे आलोकमपेक्षते, न चैवं तमस्तत्कथं चाक्षुषम् । नैवम् । उलूकादीनामालोकमन्तरेणापि तत्प्रतिभासात् । यैस्त्वस्मदादिभिरन्यच्चाक्षुषं घटादिकमालोकं विना नोपलभ्यते, तैरपि तिमि मालोकयिष्यते। विचित्रत्वाद्भावानाम् । कथमन्यथा पीतश्वेतादयोऽपि स्वर्णमुक्ताफलाद्या आलोकापेक्षदर्शनाः,y प्रदीपचन्द्रादयस्तु प्रकाशान्तरनिरपेक्षाः। इति सिद्धं तमश्चाक्षुपम् । ___ शंका-जो चाक्षुष पदार्थ है, वह अपने देखे जानेमें प्रकाश ( उजाले ) की अपेक्षा ( जरूरत ) रखता है । और तम ऐसा नही है अर्थात् विना प्रकाशके ही देखनेमें आता है । इसलिये आप तमको चाक्षुष कैसे कहते है ? समाधान-यह तुम्हारी y शका ठीक नहीं है । क्योंकि, जो चाक्षुष पदार्थ तुमको प्रकाशके विना नहीं दीख पड़ता है, वही चाक्षुप पदार्थ उलूक (घूघू ) y आदिको प्रकाशके विना भी दीखनेमें आता है। और जिन हम तुम वगैरहको जो दूसरा चाक्षुष घटादिक पदार्थ प्रकाशके विना नहीं दीखता है, उन्हीं हम तुम वगैरहको चाक्षुष तम प्रकाशके विना भी देखनेमें आवेगा । क्योंकि, पदार्थ विचित्र है अर्थात् सब पू पदार्थ एकसे नही है । यदि पदार्थोंमें विचित्रता न हो, तो पीत ( पीला ) सुवर्ण और श्वेत ( सफेद) मोती वगैरह तो अपने देखे TO जानेमें प्रकाशकी अपेक्षा क्यों रखते है ? और पीत ऐसा भी दीपक तथा श्वेत ऐसा भी चंद्रमा आदि पदार्थ अपने देखे जानेमें अन्य प्रकाशकी अपेक्षा क्यों नहीं रखते है ? भावार्थ-पदार्थ विचित्र है, इस कारण जैसे सोना मोती आदि कितने ही पदार्थ प्रकाशके विना नहीं दीख पड़ते है, और दीपक आदि प्रकाशके विना दीख पड़ते है, उसी प्रकार हम तुम घट आदि पदार्थोंको प्रकाशसे देखते है और तमको विना प्रकाशके ही देखते है । इस प्रकार 'तम चाक्षुप है' यह जो हमारा कथन है सो सिद्ध हो गया । ___ रूपवत्त्वाच्च स्पर्शवत्त्वमपि प्रतीयते । शीतस्पर्शप्रत्ययजनकत्वात् । यानि त्वनिविडावयवत्वमप्रतिघातित्वमनु, द्भूतस्पर्शविशेषत्वमप्रतीयमानखण्डावयविद्रव्यप्रविभागत्वमित्यादीनि तमसः पौगलिकत्वनिषेधाय परैः साधनान्युपन्यस्तानि तानि प्रदीपप्रभादृष्टान्तेनैव प्रतिषेध्यानि । तुल्ययोगक्षेमत्वात् । और तम रूप [ नीलवर्ण ) को धारण करता है, इसलिये स्पर्शका धारक भी प्रतीत होता है। क्योंकि, शीत स्पर्शकी प्रतीतिको उत्पन्न करता है अर्थात् ज्यों ज्यों अधिक अंधकारमें जाते है त्यों त्यों ठंडापन मालुम पड़ता है । इसलिये तम जैसे ॥१४॥
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy