SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 376
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ राजै. खाद्वादर ॥१८५ रंगोंका अभाव भी मानना ही पड़ता है। यदि दूसरों की अपेक्षा भी अभाव नही मानाजाय तो संपूर्ण रंग एक ही होजाने चाहिये। और यदि सर्वथा असत्त्व ही मानाजाय कितु अपनी अपेक्षा भी सत्त्व नही मानाजाय तो सवोंका अभाव ही होजाय । इसलिये निज निजकी अपेक्षा तो उनमेंसे प्रत्येकका सत्त्व रहता है और परखरूपोंकी अपेक्षा असत्त्व रहता है । चित्रविचित्र वस्त्रोंके दृष्टातसे । ऐसा भी नहीं सिद्ध होता है कि सत्त्व तथा असत्त्व ये दोनो धर्म है तो अवश्य परंतु भिन्न भिन्न स्थानपर रहते हो । क्योंकि चित्रवस्त्रादि जो है वह अनेक रंगोका आश्रय होकर भी अखंड एक ही है और इसीलिये उन सपूर्ण रंगोका आधार एक ही । माना जाता है, नकि भिन्न भिन्न । और फिर स्याद्वादियोके पाससे कथंचित् बोलना तो कही छूट ही नहीं गया है । दृष्टांतमें और दाष्टौतमें भी वह विद्यमान है । अर्थात् हम न तो अनेक रंगोके आधारभूत वस्त्रको ही सर्वथा एक कहते है और न सत्त्व यू असत्वके आश्रयको ही सर्वथा अभिन्न कहते है किंतु कथंचित् सत्व असत्वका आश्रय एक है और कथंचित् जुदे जुदे है। एवमप्यपरितोपश्चेदायुष्मतस्तबैकस्यैव पुंसस्तत्तदुपाधिभेदापितृत्वपुत्रत्वमातुलत्वभागिनेयत्वपितृव्यत्वभ्रातृव्यत्वादिधर्माणां परस्परविरुद्धानामपि प्रसिद्धिदर्शनात् किं वाच्यम् ? एवमवक्तव्यत्वादयोऽपि वाच्याः। इत्युक्तप्रकारेण उपाधिभेदेन वास्तवं विरोधाऽभावमप्रबुद्ध्यैवाऽज्ञात्वैव (एवकारोऽवधारणे। स च तेपां सम्यग्ज्ञानस्याभाव एव न पुनर्लेशतोऽपि भाव इति व्यनक्ति) ततस्ते विरोधभीताः सत्त्वाऽसत्त्वादिधर्माणां वहिर्मुखशेमुष्या सं| भावितो यो विरोधः सहाऽनवस्थानादिस्तस्माद्धीतास्त्रस्तमानसाः । अत एव जडास्तात्त्विकभयहेतोरभावेऽपि तथाविधपशुवद्भीरुत्वान्मूर्खाः परवादिनस्तदेकान्तहताः । तेषां सत्त्वादिधर्माणां य एकान्त इतरधर्मनिषेधेन । ॐ स्वाभिप्रेतधर्मव्यवस्थापननिश्चयस्तेन हता इव हताः पतन्ति स्खलन्ति । पतिताश्च सन्तस्ते न्यायमार्गाक्रमणेना| समर्था न्यायमार्गाध्वनीनानां च सर्वेषामप्याक्रमणीयतां यान्तीति भावः। __ हे चिरंजीव ! यदि इतनेपर भी तुमे संतोप नहीं हुआ तो जो पिता होना, पुत्र होना, मामा होना, भानजा होना, काका होना, तथा भतीजा होना इत्यादि धर्म परस्पर विरुद्ध होनेपर भी जो एक ही पुरुषमें संबंधके वश पाये जाते है उनके विषयमें क्या कहोंगे? भावार्थ-जिस प्रकार ये धर्म विरुद्ध होकर भी एक पुरुपमें रहसकते है उसी प्रकार अस्तित्व नास्तित्वादि धर्म भी एक एक वस्तुमें रहसकते है । इसी प्रकार अवक्तव्यत्वादि धर्म मी समझलेने चाहिये । इस प्रकार हमने जो संबधके विशेषपनेसे सच्चा विरोधाभाव ॥१८५।
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy