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________________ स्थाद्वादम. ॥१८४॥ | राजै.शा. विशेषणमेतत् ) उपाधिभेदोपहितं सदर्थेष्वसत्त्वं न विरुद्धम् । सदवाच्यतयोश्च वचनभेदं कृत्वा योजनीयम् । उपाधिभेदोपहिते सती सदवाच्यते अपि न विरुद्धे । कदाचित् ऐसी शंका होसकती है कि ये धर्म परस्पर विरुद्ध है इसलिये इन तीनोंका एक एक पदार्थमें समावेश कैसे होसकता है? इसलिये विरोध न आनेमें हेतुरूप विशेषण कहते हुए उत्तर देते हैं कि "उपाधिभेदोपहितम्" । अर्थात् ये धर्म उपाधियोंके कारण ॐ माने गये हैं इसलिये इनमें परस्पर विरोध नहीं है । विवक्षित किसी वस्तुमें खयं रहकर उसको शेष अनेक वस्तुओंमेंसे जुदा करने२ वाला जो धर्म होता है उसको उपाधि कहा है । अथवा नाना प्रकारके भिन्न भिन्न धर्मों का नाम उपाधि है। उस उपाधिके अनेक भेदोमेंसे किसी एक भेदके वश सत्रूप पदार्थोमें स्थापित किया हुआ जो असत्व है वह विरोधी नही होसकता है । यहांपर उपाधिभेदोपहितम्' ऐसा जो कहा वह नास्तित्वका विशेषण है तथा विरोध न आनेदेनेके लिये हेतु भी है। अर्थात् यह विशेषण हेतुरूप इसलिये है कि सत् पदार्थमें जो नास्तित्व धर्मका स्थापन है वह किसी न किसी व्यावर्तक धर्मके रहनेसे अवश्य मानना पडता है इसलिये अविरोध सिद्ध हो । वहांपर उपाधिका ही नाम व्यावर्तक धर्म है। इसी प्रकार अस्तित्व धर्म तथा अवक्तव्यत्व धर्ममें भी उपाधिके कारण ही अविरोध विचार लेना चाहिये । अर्थात् नाना प्रकारकी उपाधियोंमेंसे किसी एक उपाधिका आश्रय होनेसे ही अस्तित्व तथा अवक्तव्यत्वका भी नास्तित्व धर्मके साथ रहनेमें विरोध नही रहता। 20 अयमभिप्रायः-परस्परपरिहारेण ये वर्तेते तयोः शीतोष्णवत्सहाऽनवस्थानलक्षणो विरोधः। न चात्रैवं; सत्त्वा ऽसत्त्वयोरितरेतरमविष्वग्भावेन वर्त्तनात् । न हि घटादौ सत्त्वमसत्त्वं परिहृत्य वर्तते पररूपेणाऽपि सत्त्वप्रसङ्गात् । तथा च तद्व्यतिरिक्तार्थान्तराणां नैरर्थक्यं तेनैव त्रिभुवनार्थसाध्यार्थक्रियाणां सिद्धेः। न चाऽसत्त्वं सत्त्वं परिहत्य वर्तते स्वरूपेणाऽप्यसत्त्वप्राप्तेः । तथा च निरुपाख्यत्वात्सर्वशून्यतेति। तदा हि विरोधः स्याद्ययेकोपाधिकं सत्त्वमसत्त्वं च स्यात् । न चैवं; यतो न हि येनैवांशेन सत्त्वं तेनैवाऽसत्त्वमपि । किं त्वन्योपाधिक सत्त्वमन्योपाधिकं पुनरसत्त्वम् । स्वरूपेण हि सत्त्वं पररूपेण चासत्त्वम् । ॥१८४॥ साराश यह है कि, शीतउष्णताकी तरह जो धर्म परस्परमेंसे एक दूसरेको हठाकर ही रहते है; किंतु एकसाथ रहते ही नही है । उन धर्मोका ही एक साथ न रहनेरूप विरोध कहाजासकता है। परंतु यहापर ऐसा नही है कि एक साथ सत्त्व असत्व धर्म रहते।
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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